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Monday, July 11, 2016

हेयर ब्रश की मृत्यु : एक प्रेमकथा सबूत का अंत

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                    हेयर ब्रश की मृत्यु :  एक प्रेमकथा सबूत  का अंत 
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                 चबोड़ , चखन्यौ , चचराट :::   भीष्म कुकरेती   
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            ब्याळि म्यार हेयर ब्रश की अचाणचक,  असामायिक किन्तु  पूर्वानुमानित मृत्यु ह्वे गे। होतव्य तै क्वी क्या भेमाता /ब्रह्मा बि नि रोक सकुद त यु त एक काठक हेयर ब्रश छौ तो ेकि मृत्यु मि कब तक टाळि   सकुद छौ।  हाँ जन कै नब्बे सालक व्यक्ति का मरणो बाद बुले जांद ना कि बिचारु सब कुछ देखिक मोर अर न तो अफु ना ही कै तै बि अधिक दुःख देकि  मोर।  सद्गति वळ मनिख छौ तो चलि गे। म्यार बाळु ब्रश बि पुरो सब कुछ   देखिक चलि बस।  अब निनाणबे सालुक बूडदिदा हो या साढ़े साठ साल की दादी मुरणम त उथगा ही दुःख हूंद कि ना ? क्या ह्वाइ जु म्यार हेयर ब्रश इथगा बुड्या अर बेकामक ह्वे गे।  छ तो मेरी जिंदगी का एक हिस्सा ! उ ठीक च अपण टैम से अधिक ज़िंदा रै गे।  यदि मि टल्ली संस्कृति समौs मनिख नि हूंद थौ  तो देखि  लींद कन चालीस साल काटी लींदो धौं। 
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          मीन यु हेयर ब्रश तब अंगीकार कौर छौ जब हिंदी फिलम का सदाबाहर देवानंद की लट बि मेरी लटों देखिक शर्मान्दी छै।  जी हाँ क्या बाळ छ म्यार।  अर यूँ बाळू बदौलत मुंबई मा मेरी एक नौनी से दोस्ती ह्वे गे।  वा म्यार बाळु पर आकर्षित छे तो मि वींक अंग्रेजी से अति प्रभावित छौ।  मि वीं से अंग्रेजी बुलण सिखण चाणु छौ।  वा  ग्रामीण सरलता पर फ़िदा छे , वा मेरी ग्रामीण निर्दोष हृदय तै इज्जत दींदि छे तो मि वींक शहरी सभ्यता का समिण लम्पसार रौंद छौ ।  वा म्यार बाळु पर मोहत छे अर वींक शहरीपन तै अंगीकार करणो उतावला छौ। मि तैं अपण बाळु हिफाजत कै कै ढंग से करण चयेंद पर वा रोज एक लेक्चरर अंग्रेजी मा दींदि छे। मीफर ग्रामीणता का जनमजाति पैतृक रोग  लग्युं छौ त  मि तै  वींका लेक्चरर मा उथगा इंट्रेस्ट नि छौ जथगा फर्राटेदार अंग्रेजी बुलण सिखणो पड़ीं छे। वा वै जमानै सासु तरां बुल्दी जांदी छे अर मि ये जमानै सासु तरां सुणदु जांद छौ।  वा हेयर ड्रेसिंग पर व्याख्यान देकि  प्रसन्न हूंदी छे मि  अंग्रेजी शब्दों तैं रटणम पुलकित हूणु रौंद छौ।  एक दिन वा मि तैं टॉप मोस्ट बड़ो स्टोर अकबरलीज ली गे।  इथगा बड़ो अर उमदा डिपार्टमेंटल स्टोर देखिक मि हीन भावना से ग्रसित ह्वेका वींक पैंथर पैंथर चलणु ना ल्हसोरिक चलणु छौ।  वींन एक हेयर ब्रश ले अर पैसा मि तैं दीणो ब्वाल , फिर वींन वे ब्रश तै पैक करवाई अर पैकिंग मा ल्याख -विद   बेस्ट विशेज फ्रॉम रोजी ब्रैगैंजा  ! भौत सालों बाद पता चौल मि तै कि गंवड्या अनाड़ी अर शहरी चालाकी मा   क्या अंतर् हूंद।  पैसा म्यार खीसाका अर प्रेजेंट वींका नाम से मि तैं ई ! खैर वींन अकबरलीज का ब्रशुं से सिखाइ कि मि तैं हेयर ब्रश कन यूज /प्रयोग करण चयेंद। हेयर ब्रश की सख्त आवश्यकता पर बि वींन ज्ञान दे। 
       वीं तैं कुछ समय बाद समाज ऐ गे कि ग्रामीण सरलता कुछ देरौ कुण त खिलौना जन ठीक हूंद किन्तु जिंदगी काटणो कुण मोटी तनखा वळ हज़्बेंड चयेंद अर म्यार ब्वे बुबान मैं पैली समजै आल छौ कि ड्यारम ब्वारी हिंदी बुलण वळि चल जाली पर अंग्रेजी मा बचळेणि वळि डॉटर इन लौ नि चल सकदी।  हमर रिस्ता फिर ठंडो बस्ताम चली गे। किन्तु  एक हेयर ब्रश तो समळोणो रूप मा  मीम ही राई। 
        वैदिन से ही यु हेयर ब्रश म्यरो जिंगदी का हिस्सा ह्वे गे छौ।  हेयर ब्रश मेरो वेनिटी बैग का हिस्सा बण गे छौ।  मि कखि बि जौं नयाणो बाद मि ऐना समिण ये ब्रश से अपण बाळ ब्रश करदो छौ।  ये ब्रश तैं मि यूरोप,  चीन  अर भारत का  सब जगा  अपण दगड़ लीगु।  ये हेयर ब्रशन म्यार गां अर बद्रीनाथ बि देखि छौ। यद्यपि हेयर ड्रेशर लीणो बाद मि तीन चार सालम देवानंद से आलोकनाथ अर अनुपम खेर बण गे छौ पर मीन नयाणो बाद अपण बाळु ब्रशिंग नि छोड़ी। यद्यपि अब मुंड पर बाळ पैंथर ही रयां छन पर मीन ब्रशिंग नि छोड़ी।  घरवळि , नौन्याळ अर टूर मा ऑफिसक दगड्या चिरड़ान्द छा कि    खल्वाटी मुंड पर हेयर ड्रेसिंग इनि च जन  पथरौ पटाळ माँ दंदळ चलाण।  पर मीन अपण चिपुळ पटाळ रूपी मुंड पर दंदळ रूपी हेयर ब्रश करण नि छोड़ी।   
  इन नी कि यु हेयर ब्रश बीमार नि ह्वे हो।  बीसेक दै बीमार बि ह्वे अर मि कबि डाक़्टर फिट मा जौं तो कबि डा कारपेंटर मा जौं अर अधिकतर समय मा   दुरस्ती का पैसा मा नया ब्रश ऐ सकुद छौ पर मीन यु ब्रश नि छोड़ी।  दस बारा साल पैली सब डाकटरोंन ये तै रिपेयर करणो ना बोली दे छौ किन्तु मि डा फेविकोल या डाक़्टर फिक्स इट से ही काम चलाणु छौ।  ब्याळि काठ याने लकड़ी न ही जबाब दे दे तो ब्रश का ब्रिस्टल ही झड़ गेन।  मृत्यु अचाणचक छे किन्तु पूर्वानुमानित ही छे। 
  मि तैं दुुःख ह्वे किन्तु परिवार वळु तै प्रसन्नता ह्वे कि हड़प्पा का जमाना का मोन्यूमेंट तो घौर से भैर ह्वे। 
   मीन इथगा देर तक कनै यु हेयर ब्रश संबाळिक राखी ? ह्वे सकुद कि मनुष्य की आदत से चिपकणो रोग हो , पुरानी टल्ली प्रथा मा बचपन काटणो फल  हो या प्रेम निसाणी से  दूर  हूणैं भय हो ! पता नी।  आपक क्या राय च ?    
  


10/7/2016 ,Copyright@ Bhishma Kukreti , Mumbai India 
*लेख की   घटनाएँ ,  स्थान व नाम काल्पनिक हैं । लेख में  कथाएँ चरित्र , स्थान केवल हौंस , हौंसारथ , खिकताट , व्यंग्य रचने  हेतु उपयोग किये गए हैं।

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