उत्तराखंडी ई-पत्रिका की गतिविधियाँ ई-मेल पर

Enter your email address:

Delivered by FeedBurner

उत्तराखंडी ई-पत्रिका

उत्तराखंडी ई-पत्रिका

Wednesday, May 6, 2015

बाघ का बोण :दिमाग की कसरत कराती कविताएँ

समीक्षा:  *वीरेन्द्र पंवार*
मधुसूदन थपलियाल ने गढ़वाली काव्य जगत में अपनी शुरुवात गजलों से की। अब उनका काव्य संग्रह बाघ का बोण प्रकाशित हुआ है।शीर्षक का अर्थ है  बाघ का जंगल। उत्तराखंड के लिए जल,जंगल,जमीन के मुद्दे अहम रहे हैं।जंगल का एक अर्थ है उसके पालतू पशुओं के लिए चारा पानी की जगहअर्थात चारागाह। आशाओं और जन आकांक्षाओं की पृष्ठभूमि में बना उत्तराखंड राज्य।लेकिन जनता की नजर में अब्यवस्थाओं के चलते आज ये राज्य बाघ का बोण बनकर रह गया है।ये प्रतीकात्मक बाघ नेता से लेकर सरकारी अमले के रूप में हैं,जो इस नए नवेले राज्य को चर रहे हैं।इन्हीं हालातों के बीच  रची गयी हैंइस संग्रह की मुक्तछंद कविताएँ। पर इन  कविताओं का आनंद लेने के लिए आपको अपने दिमाग की कसरत तो करानी पड़ेगी।
मधुसूदन विशिस्ट  प्रतिभा के धनी हैं।उनका यह संग्रह गढ़वाली काव्य इतिहास में कविता की तमाम स्थापित मान्यताओं और परम्पराओं से अलग  गढ़वाली कविता की पहचान को बरकरार रखते हुए समकालीन हिंदी कविता के समकक्ष एवं  उससे  अलग खड़ा करने की कोशिस करते दिखाई देते हैं। महसूस हो रहा है कि गढ़वाली कविता में मुक्तछंद हिंदी कविता  की तरह दिल की बजाय दिमाग से लिखे जाने की नयी शुरुवातहो रही है।

गढ़वाली की पहली कविता १९०५ मे सत्यशरण रतूड़ी की उठा गढ़वालियों *गढ़वाली* नामक मासिक पत्र में प्रकाशित हुयी। आज ११०साल से ज्यादा के इतिहास में गढ़वाली कविता ने बहुत से उतार चढ़ावदेखे हैं।बीसवीं सदी के प्रारम्भ में तारादत्त गैरोला की पीढ़ी की कविता में भजनसिंह सिंह ने काव्य परंपरा को नया रूप दिया। उस युग में उन्होंने कविता की पारम्परिक खुद (याद या नॉस्टैल्जिया)और खौरी(लोकजीवन के कष्ट या संघर्ष) की धारा में परिवर्तन कर कविता को सामाजिक कुरीतिओं के खिलाफ लड़ने के उपकरण के रूप में इसका प्रयोग किया।बाद में बीसवीं सदी के अस्सी के दशक में पहले कन्हैयालाल डंडरियाल और ढांगा से साक्षात्कार के जरिये नेत्रसिंह असवाल ने गढ़वाली कविता के शिल्प और तेवर को बदलने की पहल की  अब इकीसवीं सदी के दूसरे दशक में मधुसूदन कविता के नए कलेवर एवं तेवर को लेकर प्रकट हुए हैं।
ठेठ पारम्परिक शब्दों का प्रयोग और शब्द शक्ति मधुसूदन की काव्य भासा का प्रमुख गुण रहा है। उनके काव्य में प्रायः गढ़वाली के उन शब्दों की भरमार रहती है,जिनका अर्थ समझने के लिए आम गढ़वाली पाठक को डिक्सनरी का सहारा लेने की आवश्यकता महसूस हो सकती है। उनकी कविताओं की अभिव्यंजना शक्ति चमत्कारिक है- घाम रोज लमडी जांद ब्यखुनीदं।फजल फेर खडु व्हे जांद। और तीसन एक दिन भूख पकै घाम मा  आदि। मधुसूदन ने कविता के जो बिम्ब खींचे हैंवो अद्वितीय हैं-पीपल की चौंरी मा बैठ्युं बाघ हेरणु च पाखा पर अटग्या गौं थैं। कूढ़ी कविता गढ़वाल में आ रहे परिवर्तनों की ओर इशारा करती है। कूढ़ी अब भ्वींचळ की जग्वाळ मा छ। आज़ादी के ६० साल बाद भी पहाड़ की दशा नहीं बदली।आज भी पहाड़ से रोजगार के लिए सड़क दिल्ली की ऒर ही जाती है।
उनकी कविता सपाटबयानी नहीं है। कविताओं में तीखे चुभते हुए व्यंग्य हैं। मौजूदा राजनितिक परिस्थितियों पर वे लिखते हैं-उल्लू पैंया पर बैठिकी अपणा आँखा घुमैकि सलाह देणु स्याळ तैं। उनकी कविताएँ पर्वतीय लोक के पारम्परिक सरोकारों से गुजरते हुए नए सन्दर्भों से जुड़ती हैयहीं कविता पाठक को रोमांचित करते हुए असरकारक हो जाती है। औरों से अलग मधुसूदन की कवित्ता का मुहावरा ही अलग है।उन्होंने बिम्ब और प्रतीकों को नए आयाम दिए हैं। उनके कुछ बिम्ब देखें- सुपन्यो की कूल(सपनों की नहर)नातों का भारा (रिश्तों के बोझ),अँधेरा बोण(जंगल),सरेल का चुल्लों (शरीर के चूल्हों)सरेल का मुलुक(शरीर के देश),आंख्युं की घचाक (आँखों की चोट),आंख्युं का सल्ली (आँख के उस्ताद)।
टिहरी बाँध को लेकर यहाँ के रचनाकारों ने प्रायः भावनाओं से जोड़कर अभिब्यक्ति दी है।इसके उलट त्रि-हरी कवित्ता के जरिये मधुसूदन लिखते हैं-
गुलाम देश की स्वतंत्र रियासत एक दिन आजाद जरूर होली ,जब सांगल तोड़ीकी बौगलु पाणी। डांडा कांठा धार खाळ बण जाला पाणी का सैणा तप्पड़। वे आगे लिखते हैं-देहरादून बटी दिल्ली तक एक व्हे जाली गंगा जमुना आजादी का बाद। यह एक कवि की परिकल्पना है या रूह कंपा देने वाली कोइ भविष्यवाणी।
उत्तराखंड उर्फ़ उत्तराँचल शीर्सक वाली संग्रह की पैसा वसूल कविता है-
हे भूगोल का भजेड़ अर इतिहास का ठञड़ेढ़ कौम का नान्तिनो  खबर च की देहरादून बटी गैरसैण तक मनस्वाग लग्यां छन। उत्तराखंड की पीड़ा को इन पंक्तियों से समझा जा सकता है-सैरा उत्तराखंड पर मसूरी खटीमा की नरबलि का हंत्या औणा छन। अर्थात राज्य की मौजूदा हालत देखकर शहीद हुए राज्य आंदोलनकारियों की आत्माएं भी दुखी है। वे आगे लिखते हैं- यो सवाल अज्यूँ बी ज्यूंदो छ रामपुर मा लक्ष्मण किलै मरेनि अर सीता किल्ले हरेंनि तुम थैं यो उत्तराखण्ड चीरहरण का मुआवजा मा नी मिल्युं। सवाल करती और पहाड़ियों के आत्म सम्मान को ललकारती उनकी ये कविता उत्तराखण्ड वासिओं को बहुत दूर और देर तक झकझोरती रहेगी। यह कविता अब तक की श्रेष्ठ कविताओं में शामिल है। 
संकलन की भूमिका में लोकेश नवानी की यह टिप्पणी महत्वपूर्ण स्थापना है- भविष्य की गढ़वाली कविता बाघ का बोण बटी हिटिकी जाली। ऐसी उम्मीद की जा सकती है। कहना न होगा कि गढ़वाली कविता हिंदी कविता को आदर्श मानकर आगे बढ़ी। इस संग्रह की कविताएँ हिंदी कविता के उत्कर्ष को छूने में कामयाब होती दिखाई देती है।पिड़ा बर्खिगे,बगछु,भैला,मांड,मनखी होणु असोंगू,हिट्दा हिटदी,निखोळ,अधीत अच्छी रचनाएँ हैं। कुछ छोटी कविताएँ हैं जो असरदार बन पड़ी हैं। ग़ज़ल के बाद उनका यह संकलन लम्बे अंतरालके बाद आया है।वे थोड़ा लिखते हैं पर जो कुछ लिखते हैंवह अच्छा लिखते हैं।  
संग्रह की कविताओं में पाठक को दुरुहता की शिकायत भी हो सकती है। अक्सर कविताओं में गूढ़ अर्थ छिपे हैं।पुस्तक में मुद्रण कीं कुछ त्रुटियाँ खटकती हैं।शब्द संस्कृति प्रकाशन देहरादून से प्रकाशित इस पुस्तक का मूल्य१५० रूपया है। गढ़वाली में मार्केटिंग नेटवर्क विकसित नहीं हो पाया है,इसलिए पुस्तक प्राप्ति के लिए लेखक
मधुसूदन का संपर्क नंबर है ९६२७३६६४१५ 
Copyright@ Virendra Panwar

No comments:

Post a Comment

आपका बहुत बहुत धन्यवाद
Thanks for your comments