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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Sunday, November 10, 2013

क्या उत्तराखंड को अरसा देव प्रयागी ब्रह्मणो की देन है ?

 उत्तराखंड में कृषि व खान -पान -भोजन का इतिहास --53  
                                        History of Agriculture , Culinary , Gastronomy, Food, Recipes  in Uttarakhand -53


                                                  आलेख :  भीष्म कुकरेती
                             
  कल मै गढ़वाली फिल्मो के प्रसिद्ध निदेशक श्री अनुज जोशी से मुम्बई में मिला।  वहीं अरसा के इतिहास पर भी चर्चा हुई। 
श्री अनुज जोशी ने अपने अन्वेषणों के आधार पर कहा कि अरसा कर्नाटकी ब्रह्मणो के द्वारा ही गढ़वाल में आया।  
श्री जोशी  का तर्क है कि कर्नाटकी ब्राह्मण बदरीनाथ के पण्डे थी जो शंकराचार्य के साथ ही नवीं सदी में गढ़वाल आये थे. और कर्नाटक में भी देवालयों व अन्य धार्मिक अनुष्ठानो में अरसा  आवश्यक है व प्राचीन काल में भी था। 
देव प्रयाग के रघुनाथ मंदिर में शंकराचार्य के स्वदेशीय , स्व्जातीय  भट्ट पुजारी आठवीं -नवीं सदी से ही हैं।  ये भट्ट पुजारी शंकराचार्य के समय देव प्रयाग में बसे होंगे। 
देव प्रयाग में सभी पुजारी या पंडे बंशीय लोग केरल से नही आये अपितु दक्षिण के कई भागों जैसे कर्नाटक , तामिल नाडु , महारास्त्र व गुजरात से आये थे (डा मोहन बाबुलकर  का देव प्रयागियों का जातीय इतिहास ).
श्री  अनुज जोशी का तर्क है कि कर्नाटकी देव प्रयागियों के कारण अरसा गढ़वाल में आया। 
अरसा का जन्म आंध्र या ओडिसा सीमा के पास कंही हुआ जो बाद में दक्षिण में सभी प्रांतों में फैला व सभी स्थानो में धार्मिक अनुष्ठानो में पयोग होता है। 
हो सकता है कि अरसा केरल /तामील या कर्नाटक ब्राह्मण प्रवासियों द्वारा गढ़वाल में धार्मिक अनुष्ठानो में प्रयोग हुआ हो और फिर अरसे का गढ़वाल में प्रसार हुआ होगा।  यदि केरल के नम्बूदिपराद (जो रावल हैं )अरसा लाते तो आज भी बद्रीनाथ में बद्रीनाथ में अरसा का भोग लगता .
केरल के ब्रह्मणो द्वारा  अरसा का आगमन नही हो सकता क्योंकि अरसा या अरिसेलु केरल में उतना प्रसिद्ध नही है। 
यदि  मान लें कि अरसा गढ़वाल में देव प्रयागी पुजारियों द्वारा  आया है तो भी कई  अंनुत्तरित हैं ।  जैसा कि अनुज जोशी का तर्क है कि  अरसा देवप्रयाग के कर्नाटकी प्रवासी ब्रह्मणो द्वारा आया है तो अरसा का नाम काज्जया होना चाहिए था।  कन्नड़ी में अरसा को kajjaya कहते हैं। कर्नाटक में काज्ज्या दीपावली का मुख्य मिस्ठान है।  
यदि अरसा तमिल नाडु के प्रवासी ब्राह्मणो द्वारा गढ़वाल में आया तो अरसा का नाम अधिरसम होना चाहिए था क्योंकि अरसा को तमिल में आदिरसम /अधिरसम कहते हैं। 

निम्न लेख मैंने 14 /9 / 2013 को लिखा था 

                          उत्तराखंड में अरसा प्रचलन या तो ओड़िसा से आया या आन्ध्र प्रदेश से हुआ !
                              उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास --10 
                                    

  

                                     
 अरसा उत्तराखंड का एक लोक मिष्ठान है और  आज भी अरसा  बगैर शादी-व्याह ,  बेटी के लिए भेंट सोची ही नही जा सकती है। किन्तु अरसा का अन्वेषण उत्तराखंड में नही हुआ है।
संस्कृत में अर्श का अर्थ होता है -Damage , hemorrhoids नुकसान।  संस्कृत से लिया गया शब्द अरसा को हिंदी में समय या वक्त , देर को भी कहते हैं।  अत : अरसा उत्तरी भारत का मिष्ठान या वैदिक मिस्ठान नही है।अरसा प्राचीन कोल मुंड शब्द भी नही  लगता है।

अरसा, अरिसेलु  शब्द तेलगु या द्रविड़ शब्द हैं । 
उडिया में अरसा को अरिसा  कहते हैं। 
अरसा मिष्ठान  आंध्रा और उड़ीसा में एक  परम्परागत  धार्मिक अनुष्ठान में प्रयोग होने वाला मिष्ठान  है। 
आन्ध्र में मकर संक्रांति  अरिसेलु /अरसा पकाए बगैर नही मनाई जाती है 
उड़ीसा में जगन्नाथ पूजा में अरिसा /अरसा  भोगों में से एक भोजन है।  
अरसा , अरिसा  या अरिसेलु एक ही जैसे विधि से पकाया जाता है। याने चावल के आटे (पीठ ) को गुड में पाक लगाकर फिर तेल में पकाना . तीनो स्थानों में चावल के आटे को पीठ कहते हैं।  उत्तराखंड में बाकी अनाजों के आटे को आटा कहते हैं। 

                   ओड़िसा के पुरातन बुद्ध साहित्य में अरिसा या अरसा 
प्राचीनतम विनय और अंगुतारा निकाय में उल्लेख है कि  गौतम बुद्ध को उनके ज्ञान प्राप्ति के सात दिन के बाद त्रापुसा (तापुसा ) और भाल्लिका (भाल्लिया ) दो बणिकों  ने बुद्ध भगवान को चावल -शहद भेंट में दिया था।  उड़ीसा के कट्टक जिले के अथागढ़ -बारम्बा के बुद्धिस्ट मानते हैं यह भेंट अरिसा पीठ याने अरसा ही था। 
पश्चमी उड़ीसा में नुआखाइ (धन कटाई की बाद का धार्मिक अनुष्ठान ) में अरिस एक मुख्या पकवान होता है। उड़ीसा के सांस्कृतिक इतिहासकारों जैसे भागबाना साहू ने अरिसा को प्राचीनतम मिष्ठानो में माना है। 

                     आंध्र प्रदेश में अरिसेलु का इतिहास 
      आन्ध्र प्रदेश के बारे में कहा जाता है कि आन्ध्र  प्रदेश वाले भोजन प्रिय होते हैं।  दक्षिण भारत में अधिकतर आधुनिक भोजन आंध्र  की देन  माना जाता है।   
चौदहवीं सदी के एक कवि की  'अरिसेलु नूने बोक्रेलुनु ' कविता का सन्दर्भ मिलता है (Prabhakara Smarika Vol -3 Page 322 )।
                        अरसा  का उत्तराखंड में आना   
  उत्तराखंड में अरसा का प्रचलन में उड़ीसा का हाथ है या आंध्र प्रदेश का इस प्रश्न के उत्तर हेतु हमे अंदाज  ही लगाना पड़ेगा  क्योंकि इस लेखक को उत्तराखंड में अरसे का प्रसार का कोई ऐतिहासिक विवरण अभी तक नही मिल पाया है।   
पहले सिद्धांत के अनुसार    अरसा का प्रवेश उत्तराखंड में सम्राट अशोक या उससे पहले उड़ीसा या आंध्र प्रदेश के बौद्ध विद्वानों , बौद्ध भिक्षुओं अथवा अशोक के किसी उड़ीसा निवासी राजनायिक के साथ हुआ। इसी समय उड़ीसा /उत्तरी आंध्र के साथ उत्तराखंड वासियों का सर्वाधिक सांस्कृतिक विनियम  हुआ। 
यदि अशोक या उससे पहले अरसा का प्रवेश -प्रचलन उत्तराखंड में हुआ तो इसकी शुरुवात गोविषाण (उधम सिंह नगर ), कालसी , बिजनौर (मौर ध्वज ) क्षेत्र से हुआ होगा ।
 अरसा के प्रवेश में उड़ीसा का अधिक हाथ लगता है।  
यदि अरसा उत्तराखंड में अशोक के पश्चात प्रचलित हुआ तो कोई उड़ीसा या आंध्र वासी उत्तराखंड में बसा होगा और उसने अरसा बनाना सिखाया होगा ।किन्तु यदि वह व्यक्ति आंध्र का होता तो वह  इसे अरिसेलु नाम  दिलवाता और उड़ीसा का होता तो अरिसा।  भाषाई बदलाव के हिसाब से उड़ीसा का संबंध/प्रभाव  उत्तराखंड में अरसा प्रचलन से अधिक लगता है।  
 कोई उडिया या तेलगु भक्त उत्तराखंड भ्रमण पर आया हो और उसने अरसा बनाने की विधि सिखाई हो ! 
या कोई उत्तराखंड वासी जग्गनाथ मन्दिर गया हो और वंहा से अपने साथ अरसा बनाने की विधि अपने साथ लाया हो !
 लगता नही कि अरसा ब्रिटिश राज में आया हो।  कारण  सन 1900 के करीब अरसा उत्तरकाशी और टिहरी में भी उतना ही प्रसिद्ध था जितना कुमाओं और ब्रिटिश गढ़वाल में। 
यह भी हो सकता है कि नेपाल के रास्ते अरसा प्रचलन आया हो किन्तु बहुत कम संभावना लगती है ! 



Copyright Bhishma  Kukreti  14 /9/2013

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