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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Thursday, August 15, 2013

जब इतिहासकार डा. शिव प्रसाद डबराल को "कुमाऊं का इतिहास" प्रकाशन हेतु भूमि बेचनी पड़ी

भीष्म कुकरेती 
आज स्वतन्त्रता दिवस है तो आज हमारे मनीषियों के योगदान -बलिदान स्मरण होना भी आवश्यक है।  
अपनी जन्म भूमि के आत्माभिमान के लिए त्याग भी स्वतंत्रता आन्दोलन जैसा ही ही है। अपने इतिहास को अक्षुण रखना भी एक सामजिक उत्तरदायित्व है । डा शिव प्रसाद डबराल का उत्तराखंड के इतिहास को लिखने में अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान है ।
 डा शिव प्रसाद डबराल ने उत्तराखंड के सभी क्षेत्रों का इतिहास पर अन्वेषण किया और उसे लिपिबद्ध  किया । इन कार्यों के लिए उन्हें कई कष्ट भी सहने पड़े ।
कुमाऊँ का  इतिहास (1000 -1790 ई ) की भूमिका में डा शिव प्रसाद डबराल इस प्रकार लिखते हैं -
 " छै वर्षों तक सूरदास बने रहने के कारण लेखन कार्य रुक गया था ।प्रकाशन कार्य में निरंतर घाटा पड़ने से प्रेस (वीर गाथा प्रेस ) बेच देना पड़ा ।ओप्रेसन से ज्योति पुन: आने पर  चला कि दरजनो फाइलें , जिसमें महत्वपूर्ण नोट्स थे , शायद रद्दी कागजों के साथ फेंक दी गईं हैं । कुमाऊँ का इतिहास भी गढ़वाल के इतिहास के समान ही छै सौ पृष्ठों में छपने वाला था ।इस बीच कागज़ का मूल्य  छै गुना और छपाई का व्यय १६ गुना बढ़ गया था ।छै सौ पृष्ठों का ग्रन्थ छपने के लिए 35000 रुपयों की आवश्यकता थी ।इतनी अधिक राशि जुटाना सम्भव नही था । 76 की आयु में मनुष्य को जो भी करना हो तुरंत कर लेना चाहिए ।दो ही साधन थे ।भूमि बेच देना और पांडू लिपि को संक्षिप्त करना ।अस्तु मैंने कुछ राशि भूमि बेचकर जुटाई तथा कलम कुठार लेकर पांडुलिपि के बक्कल उतारते उतारते उसे आधा , भीतरी , 'टोर' मात्र बना दिया । किसी 'चिपको वाले 'मित्र ने मुझे इस क्रूर कार्य से नही रोका ! "
डा शिव प्रसाद डबराल की  'कुमाऊँ का इतिहास '  (1987 ) पुस्तक में कुल 272 पृष्ठ हैं और पुनीत प्रेस मेरठ से मुद्रित  हुयी है 

डा डबराल को कोटि कोटि नमन

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