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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Sunday, August 18, 2013

राजस्थानी और गढ़वाली-कुमाउंनी लोकगीतों में नारी पीड़ा

 राजस्थानी, गढ़वाली-कुमाउंनी  लोकगीतों का तुलनात्मक अध्ययन:भाग- 2 


                              
                      भीष्म कुकरेती


  भारत  में तकरीबन सभी समाज में स्त्रियों को विशेष भौतिक और मानसिक कष्ट सहने पड़ते हैं । मानव जनित सामजिक कष्ट कहीं अधिक दुखदाई होते हैं ।  
 लोक गीत या लोक साहित्य रचयिता की आँखें सभी कुछ देखता है और उन घटनाओं को अनुभव करता है फिर वः यथार्थ चित्रित कर डालता है और अपने अनुभवों को लोक गीतों या लोक कथनों में ढाल देता है ।  
  राजस्थानी और 
            राजस्थानी और  गढ़वाली-कुमाउंनी लोक गीतों में बहुओं की विभिन्न पीडाएं ह्रदय विदारक ढंग से चित्रित गया है ।



                                               राजस्थानी  लोक गीत में बहू भेदभाव पीड़ा 
और सहेलिया माँ झूलण जाय, खेलण जाय । 
म्हने मण रो माँ पीसणो । 
पीसत -पीसत दुख्याँ मां मोर  ।  
पीवत दुखिया माँ पैरवा  । । 
औरों ने दिया माँ बुल्का च्यार 
म्हने बटल्यो मां एकलो 
औरों ने मां घप्सां घप्सां खांड 
म्हने घप्सों मां लूण रो  
औरों माँ  पली  पली घी 
मने मोरियों मां तेल रो 
औरों ने मां बाटकिया बाटकिया खीर , 
म्हने बाटकी मां राब की
(गीत संकलन - श्रीमती रानी लक्ष्मी कुमारी 'चूड़ावत ' राजस्थानी लोक गीत )

उपरोक्त राजस्थानी लोक गीत में एक लडकी अपनी माँ से अपने ससुराल में उस के साथ किये गये भेदभाव, दुराव छुपाव और अन्य कष्टों की कहानी बताती है कि 
हे मां ! अन्य सहेलियां तो झूलने जाती हैं , खेलने जाती हैं किन्तु मुझे मन भर अनाज पीसने और मन भर आता रोटी पकाने दिया जाता है । अनाज पीसते पीसते मेरा मोर (पृष्ठ भाग ) दर्द करने लगा है । रोटी पकाते पकाते मेरी अंगुलियाँ दर्द करने लगी हैं ।  हे मां ! ससुराल में औरों को चार चार फुल्के दिए जाते हैं जबकि मुझे छोटा फुल्का दिया जाता है । दूसरों को भर भर कर शक्कर  दिया जाता है तो मुझे केवल नमक । औरों को कटोरी भर कर घी दिया जाता है तो मुझे बूंद भर तेल । औरों को कटोरे भर भर कर खीर दी जाती है और मुझे केवल कटोरी में दलिया दिया जाता है ।
     
                          गढवाली -कुमाउंनी लोक गीतों में  बहू पीड़ा 

            गढ़वाली और कुमाउंनी लोक गीतों में भी नारी खाशकर बहू पीड़ा को दर्शाने वाले दर्जनों गीत हैं और कई क्षेत्रीय गीतों का संकलन अभी बाकी है । 
निम्न गढ़वाली लोक गीत में नारी पीड़ा के कई  पक्ष दर्शाए गए हैं ।
 केकु बाबाजीन मिडिल पढायो 
केकु बाबाजीन मिडिल पढायो
केकु बाबाजीन राठ  बिवायो 
बाबाजीन देनी सैंडल बूट 
भागन बोली झंगोरा कूट ।
बाबाजीन दे छई मखमली साड़ी 
सासू नी देंदी पेट भर बाड़ी ।
जौं बैण्योंन साड़ी रौल्यों क पाणी 
वा बैणि ह्वे गए राजों क राणी ।
जौं बैण्योंन काटे रौल्यों को घास 
वा भूली गै राजों का पास ।
मै छंऊ बाबा राजों का लेख 
तब मी पाए सौंजड्या बैख ।
दगड्या भग्यानो की जोड़ी सौंज्यड़ी
मेरी किस्मत मा बुड्या कोढ़ी ।
बांठा पुंगड़ा लड़बड़ी तोर 
नी जैन बुड्या संगरादी पोर ।
बाबाजीन दे छई सोना की कांघी 
सासू ना राखी छै मैना राखी ।
(गीत संकलन : डा कुसुम नौटियाल , गढ़वाली नारी : एक लोकगीतात्मक पहचान)

इस लोक गीत में दिखाया गया है कि एक आठवीं पास (जिस युग में  लडकियाँ स्कूल भी नही जाती थीं )लडकी की शादी उसके पिताजी ने लोभ में एक बुद्धे के साथ कर दी । फिर वह लडकी कह  रही है कि पिताजी ने भेंट में सैंडल दी हैं किन्तु उसके भाग्य में झंगोरा कूटना  लिखा है । द्यपि उसने आठ पास किया है किन्तु उसकी शादी अविकसित देस में हुआ है । उसके पिता  जी ने मखमली साडी दी किन्तु उसकी सास उसे पेट भर बाड़ी भी नही देती है ।
पिताजी ने भेंट में सैंडल दी हैं किन्तु उसके भाग्य में झंगोरा कुटना लिखा है । जो  बहिन दूर नदी से  पानी लाती थी उसे राजा दुल्हा मिला । जो बहिन घास लाती थी वह राजमहल में वास करती है । मेरे हाथ में राजयोग लिखा था तो मुझे बुड्ढा पति मिला । मेरी सहेलियों को जवान पति मिले तो मुझे कोढ़ी जैसा पति । मई चाहती हूँ यह बुड्ढा मर ही जाय । पिताजी ने मुझे सोने की कंघी दी किन्तु मेरी सास ने मुझे छह माह तक नंगा ही रखा 
 इस तरह हम पाते हैं की राजस्थानी व गढवाली  भाषाओं के लोक गीतों में स्त्री पीड़ा या नारी के साथ दुराव -भेदभाव एक समान दर्शाए गए हैं । ऐआ लगता है कि नारी पीड़ा सभी जगह एक जैसी ही है ।
दोनों लोक गीतों में करुण रस उभर कर आया है । दोनों ही भाषाओं के लोक गीत स्त्री विमर्श पर ह्रदय विदारक चित्र उभारने में सफल हैं ।राजस्थानी और गढ़वाली के लोक गीत नारी व्यथा चित्रित करने में यथार्थ को सामने लाते हैं और ये लोक गीत अपने युग का आयना सिद्ध होते हैं ।


Copyright@ Bhishma  Kukreti 16 /8/2013 

सन्दर्भ 
डा जगमल सिंह , 1987 ,राजस्थानी लोक गीतों के विविध रूप , विनसर प्रकाशन , दिल्ली 
डा शिवा नन्द नौटियाल , 1981 ,गढवाली लोकनृत्य -गीत , हिंदी साहित्य सम्मेलन , प्रयाग
डा नन्द किशोर हटवाल , 2009 उत्तराखंड हिमालय के चांचड़ी  गीत एवं नृत्य ,विनसर पब क. देहरादून
(राजस्थानी लोक गीतों में स्त्री पहचान ; गढ़वाली -कुमाऊंनी लोक गीतों में स्त्री पहचान ; राजस्थानी लोक गीतों में  बहू पीड़ा ; गढ़वाली -कुमाऊंनी लोक गीतों में बहू पीड़ा ;राजस्थानी लोक गीतों में करुण रस ; गढ़वाली -कुमाऊंनी लोक गीतों में करुण रस   ;राजस्थानी लोक गीतों में स्त्री दुःख ; गढ़वाली -कुमाऊंनी लोक गीतों में स्त्री दुःख ; राजस्थानी लोक गीतों में नारी पीड़ा ; गढ़वाली -कुमाऊंनी लोक गीतों में नारी पीड़ा ; राजस्थानी लोक गीतों में स्त्रियों के साथ दुराव ; गढ़वाली -कुमाऊंनी लोक गीतों में स्त्रियों के साथ दुराव ; राजस्थानी लोक गीतों में स्त्रियों के साथ भेदभाव ; गढ़वाली -कुमाऊंनी लोक गीतों में स्त्रियों के साथ भेदभाव ;राजस्थानी लोक गीतों में नारी वेदना ; गढ़वाली -कुमाऊंनी लोक गीतों में नारी बेदना ;राजस्थानी लोक गीतों में नारी कष्ट ; गढ़वाली -कुमाऊंनी लोक गीतों में नारी कष्ट ;राजस्थानी लोक गीतों में नारी विषयक हृदय विदारक चित्र ; गढ़वाली -कुमाऊंनी लोक गीतों में नारी विषयक ह्रदय विदारक चित्र - राजस्थानी, गढ़वाली-कुमाउंनी  लोकगीतों का तुलनात्मक अध्ययन श्रृखला भाग 3 में जारी … )

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