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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Wednesday, July 17, 2013

उत्तराखंड त्रासदी

(16-17 जून 2013)

           -बृजेन्द्र नेगी

मुक्तिधाम के दुर्गम पथ
बनाये पहले सुलभ, सुगम,
दर्शन करने पहुँचे फिर 
लेकर अपना सारा कुटुंभ। ।1।
 
देवभूमि का आँचल चीर कर
निर्मित की विध्वंस की राह,
अहंकार में अनसुनी की   
मानव ने माँ की करुण कराह। ।2।

खोदे, तोड़े रोज पहाड़
मानस ने अपने स्वार्थ में,
कहीं सड़क, भवन बनाए
पनबिजली कहीं सुरंग में। ।3।

नदियाँ, नाले बनते गए 
जंगल, बाग बगीचे,
तटबंधो पर सजने लगे
आशियाने बे-तरीके। ।4।

तीर्थधाम बन गए सैरगाह
संस्कृति सारी कुचली,
भक्तिभाव को त्याग दुर्बुद्धि
आमोद-प्रमोद में फिसली। ।5।

मानव तेरी ताकत को
प्रकृति तोल रही थी,
महा-विनाश रचना को
चुपचाप देख रही थी। ।6।

अक्षम्य, असह्य हो गया
घड़ा जब दुराचारी पाप का,
प्रकृति ने रूप दिखाया
तुझको अपने ताप का। ।7।

मानव प्यासे रह गये
बारिश में इस बार,
बूंद-बूंद को तरस गये
सूखे कंठ हजार । ।17।
पानी बिन बेटा मर गया
तड़फ-तड़फ कर गोदी में,
बूंद-बूंद को तरस गया
इतनी भारी बारिस में। ।18।

पाँच दिन माँ की लाश को
ढोया पर्वत खाई में,
अग्नि दान दे न पाया
अंततः बहाई जलधारा में। ।19।

बेटे-बेटी-पत्नी छिन गई
पति-माँ-बाप किसी के,
घाटी में मर गए संबन्धी
पत्थर गिरने से किसी के। ।20।

कोई भूखे-प्यासे मर गए
कोई बह गए जलधारा में,
जूतों से पानी पीकर भी
असमर्थ रहे प्यास बुझाने में। ।21।

दर पर मांगी मन्नत से
गोदी में दो फूल खिले,
दर पर हाजिर होते ही
दोनों सैलाब ने लील लिए। ।22।

माँ-बाप के साथ गए
बच्चे, देवदर्शन की इच्छा से,
गुमसुम अकेले रह गए
बच गए सौ-भाग्य से। ।23।

घर-परिवार उजड़ गए
सूनी होगई असमय मांगे,
कुदरत की इस आपदा में
दो रोटी भी किससे मांगे। ।24।

प्रकृति ने रौद्र रूप लिया
काले मेघ उमड़ पड़े,
दुर्गम बर्फानी घाटी में
महा-मेघ फटने  लगे। ।8।
अविरल बरसती जलधारा से
छलक़ने लगे जलाशय,
बूँदों में भरने लगी
महासागर सी प्रलय। ।9।
नभ-चुंबी पर्वतशिखा से
उमड़ा मटियाला पानी,
मानस का छीजा आँचल
क्षण में क्षीण हुआ अभिमानी। ।10।
नदियों ने बाहें फैलाई
उमड़ पड़ा जल का सैलाब,
खंड-मंड कर नगर-गाँव
प्रकृति ने तुझको दिया जबाब। ।11।

प्रकृति का जब गुस्सा फूटा
टूट गए सारे तटबंध,
मानव तेरे विज्ञान का
निष्क्रिय हुआ हर अंग। ।12।

कहाँ तेरा विज्ञान गया
कहाँ तेरी प्रौध्योगिकि,
तिनके सी ढह गई
मानस तेरी भौतिकी। ।13। 
बद से बदतर हो गए
पल भर में हालात।
चर-अचर बहा ले गई
एक रात की बरसात। ।14।
देवभूमि के  दर्द से
काँप उठी जब धरती,
फलभर में सिमट गई
मानव तेरी हस्ती। ।15।

नग्न नगर हुए भग्न भवन
खंडित मंदिर, मूर्ति, चमन,
छीन लिया मानव तेरा
चिर संचित वैभव-सुख-धन। ।16।

शेष अवशेष न शेष अब
जीवन की करुण कथा बिखरी,
केदार घाटी की दारुण गुहार
घायलों की साँसों में सिहरी। ।25।
क्या विध्वंश की ओर है
मालिक का संकेत,
हे क्रूर निष्ठुर, निठुर
मानव अब तो चेत। ।26।
कोई कहे देव रुष्ठ हैं
कोई कहे प्रकृति,
मैं कहूँ मानव पोषित-
थी यह विकट विपप्ति। ।27।

अपनी निरंकुश लेखनी से 
लिखकर कथा विनाश की,
फिर कैसे संभव है उसमें
पीड़ामुक्त प्रस्तावना की। ।28।

देवभूमि की महाप्रलय में
शव अक्षत-विक्षत पड़े हैं,
खंड-मंड हो गए भवन पर
शिव आज भी वहीं खड़े हैं। ।29।

इस शदी की ये त्रासदी
पल-पल सजग करेगी,
हर गलत कदम से पहले
चिंतन को मजबूर करेगी। ।30। 

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