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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Sunday, June 30, 2013

बादलों का जरा सा गरजना

  बादलों का ज़रा सा गरजना भी भयभीत करता है
   सूर्य के उदय पर धूप भी अब सुहानी नहीं लगती
   समझ में नहीं आता यह सब  क्या हो रहा है 
   ये गंगा ये हिमालय भी अब अपने नहीं लगते
   ये नदियाँ ये जंगल ये पहाड़ ये घाटियाँ 
   ये मंदिर ये शिवालय भी अब लगे हैं रूठने
     सुनहरे सपने सदियों से संजोते हम आ रहे हैं 
     जाने क्यों टूटती हैं अब ये उम्मीद की सीढियां
       प्रकृति का ये तांडव अब डराने लगा है
       सदियों से बसागत हमको भगाने लगा है
       क्या करें कहाँ जाएँ कुछ सुध नहीं मिलती 
       जिंदगी की डोर भी अब बहुत हिलने लगी है
        नरेन्द्र गौनियाल ..... कॉपीराइट narendragauniyal@gmail.com

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