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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Friday, April 19, 2013

उत्तराखंड के भोजन


 डा. बलबीर सिंह रावत 


भोजन, यानी खाने की वे वस्तुएं, जो स्वादिष्ट हों , पौष्टिक हों, आसानी से उपलब्ध हों, और आसानी से पचाई भी जा सकें। ज़रा सोचिये  की मानव जाति के पूर्वजों ने, प्रकृति में पैदा हुए  नाना प्रकार की बनस्पतिओं को चख कर, थल /जल के जानवरों, पक्षियों, से मांस, दूध, अंडे लेकर, उन्हें चखा होगा , उनके अच्छे बुरे , पौष्टिक/जहरीले असर को भुगता होगा और कई पीढ़ियों के अनुभव के बाद छांट कर चुना होगा की यह खाने लायक हैं और वह नहीं हैं . आग को बस में करने की कला सीखने के बाद तो मनुष्य के भोजन में आमूलचूल परिवर्तन आया होगा . जो वस्तुएं कच्ची हालत में अपाच्य थीं वे पकाने के बाद सुपाच्य हो जाती हैं, यह उस जमाने का एक युगपरिवर्तक आविष्कार था. आज हमारे लिए यह सब एक ऐसी साधारण सी बात है की इस पर कोइ सोचता भी नहीं।  मानव जाती के प्रसार के साथ साथ , उसकी यह भोजन के लिए उपयुक्त पदार्थों की ढूंढ उसके साथ साथ चलती रही क्योंकि जहां से ए दल,  पूरे परिवारों के साथ आगे बढे , उन्हे नईं बन्स्पतियो से, नईं जलवायु से अन्य प्रकार की भोजन सामगियाँ ढूंढनी पडीं .जब ये दल स्थाई रूप से कहीं बस गए तो इनके भोजन में उन स्थानीय वस्तुओं का अमिट प्रभाव रहा जो वहाँ पाई जाती थीं .तब खेती भी पूरी तरह प्राकृतिक आपदाओं से, परिवर्तनों से , ऒखे, या अतिब्रिष्टि से प्रभावित होती थी तो मानुष ने वनों में उपलब्ध खाद्य योग्य पदार्थों को भी पहिचाना और उनका उपयोग करना शुरू किया .

उत्तराखंड के सन्दर्भ में जब यहाँ के निवासियों के भोजन की बात आती है तो इसमें  बहुत विभिन्नताएं हैं।  इन विभिन्न्ताओं का कारण यहाँ के जलवायु में पैदा होने वाले खाद्य पदार्थ हैं। नदी घाटियों की नम और गर्म हवाएं, ऊंचे पर्वतों की ठंडी आबोहवा , हर दिशा के ढलानों की अपनी विशेषताएं  हैं जिनमे हजारों प्रजातियों की बनस्पतिया उगती हैं।  इन में से कई की खेती की जाती है और बहुत सारी जंगलों से ही प्राप्त हो जाती हैं, बस मौसम में बीन कर, तोड़ कर , खोद कर ले आओ।  उत्तराखंड के नैनीताल जिले के भोवाली में स्थित नेशनल ब्यूरो ऑफ प्लांट जेनेटिक रिसोर्सेज के क्षेत्रीय स्टेशन ने इस विषय पर शोध किया . उनके वैज्ञानिकों, मेहता , नेगी, और ओझा, ने पाया की कृषि क्षेत्र में कुल ९७ प्रजातियों की फसलें उगाई जाती हैं  जिनमे अनाज की ८ , मोटे अनाज की ६ ,दालों की १५, साग-सब्जियों की २८, तिलहनों की ११, फलों की १९ और मसालों की १० प्रजातियों की फसलें उगाई जाती हैं .

इस विविधता के भोज्य सामगियों की उपलब्धता में पौष्टिकता का संतुलन भी है। जहां अनाज (कार्बोहाइडरेट) की कुल १४ किस्में उगाई जाती हैं, वहीं दालों (प्रोटीन ) की १५, तिलहनों (वसा ) की ११,  फलों की १९ और साग सब्जियों( खनिज, विटामिन , ऐंटीऔक्सीडेंट) की २८ किस्में पैदा की जाती हैं।

इन खेती से उगाई जाने वाली भोज्य सामग्रियों के साथ साथ वनों में प्राकृतिक रूप से पैदा होने वाले और खाए जा सकने वाले फलों की ६७ किस्में है और साग सब्जी बनाने लायक फूलों, पत्तियों और कंद मूलों की २७ प्रजातियाँ हैं जिन्हें उत्तराखंड के निवासी सदियों से उपयोग में लाते रहे हैं।

 उपरोक्त वैज्ञानिकों ने यह भी पाया की इतने सारे भोज्य पदार्थों की उपलब्धि ने ही यह संभव किया कि उत्तराखंड के लोग कुल १२५ से अधिक प्रकार की  भोजन बनाते हैं . अकेले रोटियों और नाना प्रकार के भातौं की संख्या २१ है, दालें १५ किस्म की बनती हैं,, ६ प्रकार के फाणे-चैसे, १९ प्रकार के मीठे भोजन,
११ प्रकार की विशेष सब्जियां, ८ प्रकार के झोल, १० प्रकार की चटनियां , ५ प्रकार के रायते, १० प्रकार की बड़ियाँ और पकोडियां बनाई जाती हैं
यह तो रहा एक संकलन, कि कितनी सामगियाँ उपलब्ध हैं और उनसे क्या क्या बन सकता है। यह सारी खोजें और विधियां हमारे पूर्वजों ने खोजी/स्थापित/प्रचलित कीं थीं, उन्होंने ने ही इतने सारे प्रकार के भोजन बनाने की रेसिपियाँ भी विकसित की थीं। जो अब प्रयोग में कम ही लाई जाती हैं। आज के सन्दर्भ में देखें तो अब न तो इतने किस्म के पदार्थ उगाये जा रहे हैं , न ही बनो में वह सब उपलब्ध है जो कभी था.७५ साल पाहिले हम स्कूल से घर आते हुए लिंगडे, खुन्तड़े तोड़ कर ले आते थे, सगोड़े के पुश्ते के बेडू के पेड़ से नए लगे कच्चे फलों की झुम्पिया तोड़ कर सब्जी के लिए ले सकते थे, अब यह सब कई कई कारणों से दुर्लभ होता जा रहा है. 

शिक्षा और जीवन शैली का शहरीकरण होने के कारण खान पान भी बदल गया है. मंडुए के बाडी और कन्डली की धबड़ी को हमारे ही बच्चे छी छी  के नाम से पुकारते हैं, गाँवों में भी। माँ बाप भी लाचार . लेकिन  एक बार मैंने अपने ही बच्चों को अखबार दिखाया की मंडुए को कर्नाटक में रागी  कहते हैं, वहा से आये भारत के प्रधान मंत्री रोज रागी बाल्स  (बाडी के पिंड) खाते हैं,  और मंडुये का आटा, गेहूं के आटे से अधिक स्वास्थ्यवर्धक है. अब अखबार में लिखा था तो वे राजी हुए की वे भी काली रोटी में घी और भुने तिल,मूंगफली, हरे धनिये, लहसुन के हरे पत्ते और कलियाँ, हरी मिर्च, अदरख की नमकीन, चटपटी चटनी के साथ खाने लगे. दो दिनों बाद दूकान में गया, मंडुए का आटा माँगा, तो उत्तर मिला "अब अगले जाड़ों में ही मिलेगा". शहर की अन्य दुकानों में खोजा , महँगा पेट्रोल जलाया, तो एक दूकान में मिला,  बोला "मेरे यहाँ हर समय आपको मिलेगा " भाव जाड़ों में हर पहाडी पंसारी के यहाँ से चार रूपये अधिक.  कहने का अर्थ यह है की केवल प्रकृति ने ही इतनी पौष्टिक सामग्रियों को दुर्लभ नहीं बहाया है , हम मनुष्यों के लालच ने और दुर्लभ बना दिया है , मंडुये का आटा गेहूं के आटे से ६ रूपये महँगा? इसी मंडुये के बीज, कई विदेशों में रहने वाले कर्नाटकी परिवार, अंकुरित करके, उनका माल्ट बना कर शिशुओ का अन्न प्राशन भी कराते हैं, मेरे एक कर्नाटकी सहयोगी ने मुझे मंडुए का मीठा सत्तू भे ला कर दिया था। बहुत स्वादिष्ट था .       

आज की पढी लिखी गृहणियों को तो पहाडी व्यंजन बनाना नहीं आता।  जब इनकी माताएं बनाती थीं तो ये बालिकाएं पढाई में व्यस्त, पका पकाया खाना खाती थीं, बाद में कुछ बनाना सीखा तो बड़े बड़े होटलों के पसिद्ध श्येफों द्वारा लिखी गयी ( या उनकी लिखी किताबों की नक़ल मार कर, प्रवीण गृहणियों द्वारा लिखी रविवारीय स्तंभों में छपी) रेसिपियों को सामने रख कर।  अपनी कोइ पर्वतीय व्यंजनों को बनाने के अधिकृत, परिस्कृत, मानकीकृत रेसिपियां तो किसी ने अभी लिपि बद्ध करने की सोची भी भी नहीं होगी। फिर प्रवासियों के लिए पर्वतीय खाद्य सामग्रोयों की निरंतर उपलब्धता भी एक बड़ी समस्या है 

  .                                      उपरोक्त संस्थान  ने भी केवल संकलन के लिए शोध किया है. और न तो  वस्तुओं  के पर्वतीय ,प्रचलित नाम ही दिए हैं और नहीं उगने/उगाये जाने के स्थान का कोई  विवरण है. यह काम किसी अन्य अन्वेषक दल को  और अन्य संस्थानों  को भी करना चाहिये.  वैसे अगर विश्वविद्द्यालयों और महाविद्द्यालयों के वनस्पति शाश्त्र विभाग ऐसा अनुसंधान करें तो उनका उताराखंड में स्थापन सार्थक हो जायेगा. अभी अल्मोड़ा में जो हुनर विकास का नया पाक शाश्त्र केंद्र खुलने वाला है वहाँ  अगर एक अन्वेषण कोष्ठ भी खुले और यह कोष्ठ उन सारे १२५ व्यंजनों की ,जिनका संकलन उपरोक्त संथान ने किया है, की सारी पारंपरिक रेसिपियों का संकलन, आंकलन, परीक्षण और  मानकीकरण करके,  पुस्तक रूप में उपलब्ध करा दे तो यह इस प्रदेश की सरकार का उत्तराखंड की भोजन विरासत को लोकप्रिय बनाने की दिशा में एक अनूठा कदम होगा।

इसके साथ साथ अगर अब भी कोइ जानकार लोग, जिनके घरों में, जान पहिचान में , ऐसी प्रवीण महिलायें, और सामाजिक भोज बनाने वाले सरयूल परवारो के जानकार हैं,  तो उनसे उनकी रेसिपिया ले कर भी प्रकाशित की जा सकती है।  यहाँ पर एक चेतावनी भी मैं देना कहता हूँ , चूंकि अब पर्वतीय खाद्य सामग्रियों का चलन बढ़ रहा है, तो इनका व्यापारिक महत्व भी बढ़ रहा है. ऐसे में जो पर्वतीय भोज्य प्रसंस्करण और पाक शाश्त्र की  असली टेक्नौलोजी है, उसे ताक पर रख कर, कई नकलची भी उभर रहे हैं, जैसा मन में आया, जैसा भी उनकी समझ में आया वैसे ही ऊटपटांग बनाया और बेच दिया। ऐसे लोग   सब को धोखा दे कर  फलफूल रहे है। इस लिए राज्य सरकार का यह फर्ज है की वोह अपने समाज कल्याण विभाग में एक विरासत सरंक्षण उपविभाग खोले और इन विलुप्त होती विरासतों का मूल रूप  में संकलन करके, उच्च कोटि के शोध संस्थानों में इनका परीक्षण, मानकीकरण और प्रकाशन कराने की व्यवस्था करे . हमारे भोजनों में से काफी पदार्थ है जो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय हो सकते हैं, केवल दो उदाहरण काफी हैं, खूब फेंट कर बनाई गयी उड़द-भुजेले की मसालेदार बडियां और जिंजर हुए अरसे . और भी कई पदार्थ हैं कोइ इन्हें आगे तो बढायं।   
 
dr.bsrawat28@gmail.com

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