उत्तराखंडी ई-पत्रिका की गतिविधियाँ ई-मेल पर

Enter your email address:

Delivered by FeedBurner

उत्तराखंडी ई-पत्रिका

उत्तराखंडी ई-पत्रिका

Tuesday, April 16, 2013

उत्तराखंड में रेशा उद्द्यम की संभावनाएं


  डा. बलबीर सिंह रावत 


मनुष्य को ईश्वर ने सबसे बुद्धिमान प्राणी बनाया तो उसने ईश्वर की रची बसाई दुनिया की उन सभी वस्तुओं को अपने उपयोग में लान शुरू कर दिया जिससे उसे कुछ भी लाभ मिलता दिखा . बनस्पति और पशु जनित रेशों का प्रयोग प्राचीन काल से चला आ रहा है.

आज के अनुमान से विश्व में प्राकृतिक रेशा उद्यम के आंकड़े इस प्रकार हैं (आभार -ब्रेट .सी . सुडेल, इंडस्ट्रियल फाइबर्स -रीसेंट ऐंड करंट डेवलपमेंट, 2011)
रेशा ------------------देस ---------------------------------वार्षिक निर्माण हजार टनों  में
लकड़ी ------------अधकतर देस -----------------------1,750,00
बांस ----------------मुख्यतया चीन ------------------10,000
कनेत ----------------भारत , चीन ------------------970
जुट -----------------भारत , बंगलादेस --------------2,861
क्वाइर  /नारियल -------भारत, वियतनाम . श्री लका --931
फ्लैक्स -----------चीन , यूरोप -------------------830
सिसल/रामबांस   -----------ब्राजील, केनिया, तंजानिया --378
रेमी -----------------चीन -------------------------------249
भांग --------------चीन, यूरोप ----------------------214
घीकंवार वार। ---------लैटिन देस ------56
अबाका -   फिलीपाइन ,युकेडर ----------------98

(यद्यपि कपास , रेशम  व उन भी इसी कर्म में आते हैं ) इसके अलावा केलों के तने से, अननास से भी र्सेहे प्राप्त होते हैं
आंकड़े बताते हैं की दुनिया में प्रतिवर्ष तीन सौ लाख टन प्राकृतिक रेशों  का निर्माण  होता है
आज प्राकृतिक रेशों से बने पदार्थों काकई उद्योगों में उपयोग होता है , जसे ऑटोमोबाइल , भवन निर्माण , सडक निर्माण, मनोरंजन उद्यम,आदि में होता है।

प्राकृतिक रेसों  से गिफ्ट पैकिंग, पैकिंग, बिछौने , चटाईयां , टेबल कवर ,बीच चटाई , टेबल रनर , कोस्टर , पर्दे, बोल्स्टर , थैले, बटुवे , सिक्के रखे ने बटुवे, किताब रखने के होल्डर , कटलरी ट्रे, चायदानी की ट्रे , फ्रूट ट्रे, टोकरियाँ , बीन्स , गिलाफ , व अन्य  दिखलावटी क्राफ्ट वस्तुएं बनाई जाते हैं 

उत्तराखंड में पशुओं से  केवल उन ली जाती है। बन्सपतियों के रेशों में सबसे परचलित है, भांग के पौधे की खाल, भीमल (भ्युंल) की टहनियों खाल, बनों में उगी हुई बबुलू घास की महीन और लम्बी, बालों के आकार की घास, बनो में उगती बेल -माल्हू- की खाल , रामबांस के पत्तों के रेशे, बांस और रिंगाल की छाल, और गेहूं तथा जौ के पौधों के तनों के (बाल और पहिली गाँठ के बीच का) अगले भाग. पारंपरिक उपयोग हर प्रकार के रेशों का अलग अलग कामों के लिए होता था . जैसे:-

भीमल  की टहनियों से पत्तियां तो जानवरों के चारे के लिए उपयोग में ली जाती हैं, टहनियों को सुखा कर,  स्थिर जल कुंडों में सिजाने रखते हैं, जहाँ हफ्ते दो हफ्ते में बाहरी छाल सड़ जाती है, पानी से बाहर निकाल कर, इस छाल  से रेशे निकाल कर सुखाये जाते हैं, रेशों को  पत्थर पर  पटकने और झटकने से छाल के अवशेष हट जाते हैं और मुलायम से एक मीटर के लगभग लम्बे, भूसे के रंग के रेशे, प्राप्त होते है। स्थानीय भाषा में यह रेशा स्योल्ल्हू के नाम से जाना जाता है।  जिन्हें उँगलियों से कंघी करके बारीक रेशों को अलग करके, बट कर पतली रस्सियां बनाई जाती हैं। इन पतली रस्सियों की तीन लड़ों को बट कर लम्बी मोटी रस्सियाँ बनाई जाती हैं, जिनका उपयोग जानवरों को खूटों से बांधने के लिए होता है. भीमल की रस्सियों मुलायम, मजबूत और नमी  रोधक होती हैं। ये जानवरों की गर्दनों को कोइ हानी नहीं पहुंचाती हैं इसके अलाव, जहाँ भी मजबूत, मोटी रस्सियों के आवश्यकता होती है, यह रासी उपयोग में लाई जाती है .
खेतों की मेंड़ों पर उगाये जाने वाले भीमल के पेड़, जाड़ों भर दुधारू जानव्रों के लिए हरे चारे का भरोसेमंद जरिया हैं, रेशा, और रेशा निकालने के बाद बची सूखी बारीक टहनियां  चूल्हे में आग जलाने के लिए, और जब सेल वाली टोर्चें नहीं होती थीं , तब बाहर जाने के लिए रोशनी करने के काम आती थीं।  कृषि और पशुपालन के ह्राश के साथ साथ इस इस रेशे की उपलब्धि कम होती जा रही है . दुग्ध उत्पादन बढाने के प्रयासों में अगर भीमल को बढ़ावा दिया जाता है तो यह रेशा उद्द्योग अच्छी आय देनेवाला कुटीर उद्द्योग बन साकता है .

भांग के रेशे भांग के पौधे की छाल से लिए जाते हैं। भांग का पौधा ठंडी जलवायु में आसानी से उगाया जा सकता है. इस पौधे की जड़ों के अलावा, बाकी सारे अंग अपनी अपनी उपयोगी खासियत रखते हैं . हरी पत्तियों से, दूध बादाम के साथ, शीतल मादक पेय बनाया जाता है, सूखी पत्तियों को अकेले या तम्बाकू, सिगरेट में मिला कर भी मादक धुंवा लिया जाता है जो साधुओं का मनपसंद, ध्यान केन्द्रक, मादक पदार्थ है. इसके फूलों के अन्दर, बीज बनने से पाहिले, जो गोंद नुमा चिप चिपा  पदार्थ  मिलता है उस से भी, निकाल कर कई लोग, अवैधानिक रूप से, तेज मादक की तरह उपयोग में लाते हैं भंग के पके हुए बीज, मादकता रहित होते हैं और वे उत्कृष्ट प्रोटीन और ओमेगा ३ के समृद्ध स्रोत हैं। पार्वतीय गाँवों में इसके बीज भून कर,चेवड़ों और भुने गेहूं के दानो के साथ मिला कर स्नेक्स की तरह लिए जाते हैं बीजों को पीस कर और छान कर साग सब्जियों के रस की गाढा कने के लिए भी उपयोग में लाया जाता है, विशेष कर पर्वतीय गोल मूली की सब्जी में तो इसके मिलाने से सवाद बहुत ही बढ़ जाता है. 
.
जब बीज पकते हैं तो पौधे, जो ८ -१० फीट लम्बे होते हैं, सूख जाते हैं। तब इनकी छाल उतार कर रस्सी बनाने के लिए ली जाती है. रेशो को सुखा के उनसे झटक कर छिलके उतार कर रखे जाते हैं . पौधे के बचे भाग को तो जलाने के लिए उप्योफ़ में लाया जा सकता है, अन्यथा फेंक दिया जाता है. बहुत कम लोगों को मालूम है टी इस बेकार भाग से सबसे अधिक असरदार साउंड अब्सोर्विंग टाइल्स बनारी जा सकती हैं, तो ध्वनि को सोश कर आवाज को गूजने से बचाती हैं जैसी सिनेमा हॉलों में लगाने की जरूरत होती है. लेकिन इसके लिए बड़े आकार पर भांग की खेती करनी पड़ती है और सरकार से लाइसेन्स भी लेने की जरूरत होगी . 

भंग के रेशे १ १/२ मीटर  तक लम्बे मुलायन और चमकीले होते हैं तो इससे बनी रस्सियां मजबूत, एक सी गोलाई की और चिकनी फिसलन दार होती हैं इसलिए इसकी गांठे भी विशेष प्रकार से लगानी होती हैं और तब वे खुलती नही हैं। रस्सियों के अलावा भांग के धागों से हैण्ड बैग, थैले , क्वथ्ले (लम्बे थैले, जिन में अनाज रख कर बीच में खाली करके , घुमा कर , १० - १२ किलो के दो भार दोनों तरफ और बीच में कंधे में रखने का घुमावदार गददा )भी बनाए जाते थे जिनका अब चलन नहीं है. आज के उपयोग के लिए भांग के रेशे से रंगीन डिजाइनों वाली दरियां, थैले , बोरे  और मैट्स बनाए जा सकतें है. 

भांग एक बहु उपयोगी पौधा है , जिसके मादक तत्वों को अगर नियंत्रण में रख कर , बड़े स्तर पर खेती की जाय तो रेशा, अति पौष्टिक बीज और  उत्कृष्ट किस्म के अत्यंत ध्वनि शोषक , हल्की, अग्नि रोधक द्रव्य से उपचारित टाईलें बनाई जा सकती हैं. यह टेक्नोलोजी नर्सरियों में से एक हो सकता है. इसकी पहल सरकार को हे करनी होगी .

मालू  की बेल पर्वतीय बनो में, ४, ००० - ५,००० फीट की ऊंचाई पर प्राकृतिक तौर से उगी मिलती है. इस बेल  के पत्ते और रेशे पर्वतीय खेती के अभिन्न अंग थे. पत्तों से छत्री आकार के छंतले और ५ -६ x ८-१० फीट के पल्ले बनते थे जो, खेतों में जानवरों की गोठ में पानी,पाले से बचाने का काम करते थे . पत्तों  और सख्त बारीक, सींक नुमा   तने वाले घास की परतों को बांस के फ्रेम में बाँधने के लिये मालू के पत्तों और रेशे का ही प्रयोग किया जाता अहि. इस रेशे की विशेषता यह है की यह पानी/ नमी से सद्द्ता नहीं और बजाय फूल कर ढीला होने के और भी कस जाता है . मालू के रेशे की रस्सियाँ अति मजबूत होती है और सूखने पर भी लचीली रहती हैन. मालू के पत्ते ६ से १० इंच लम्बे चौड़े होते हैं, इनसे पत्तलें  और दोने बनाए जाते हैं। सामाजिक भोजों में पके भात को, गुंदे आटे को ढकने के काम आते हैं इसकी पत्तियों की एक अपने प्रकार की खुशबू होती है, जो मीठे भात के स्वाद को दुगुना कर देती है। इन  पत्तों को पान और एनी इसी आकार के खाद्य सामग्री को लपेटने के काम भी लाया जाता है.  मालू की फलियाँ भी लम्बी होती हैं और हर फली में ४ से लेकर ८ तक, पुराने एक रुपये के सिक्के के आकार के, बीज होते हैं , कच्चे बीज खाए भी जा सकते हैं .
भीमल और भांग की तरह मालू भे बहु उद्द्येश्हेय है, और किसी जमाने में य तीनो पर्वतीय जीवन के अभिन्न अंग थे .

राम बांस   भी एक रेशे दार पौधा है जो जंगलों में, खेतों की रक्ष के लिए छरो और दीवार के रूप में लगाया भी जाता है. यह शुष्क जमीन में भी उगता रहता है, इसकी पर्रियाँ गूदेदार, , ३ फीट तक लम्बी होती हैं, परिपक्व पत्तिओन को सुखा कर उनसे रेशा लिया जाताहै, इसका रेशा, मोटा और खुरदरा होता है तो इस से  मोटी छातियाँ और इसी तरह का, बिछाने ढंकने का सामान बनाया जा सकता है.  रस्सियों के लिए रामबांस का रेशा अनुपयुक्त है . 

बांस और रिंगाल  भी पार्वती क्षेत्रों में अत्यंत उपयोगी पौधे हैं, बांस के झुरमुट, आम तौर से नालों के आस पास जहां हमेशा नमी रहती है , लगाए जाते रहे हैं, इसके ताने से कई काम लिए जाते हैं, परिपक्व ताने गो बाल्लियों के रूप में कई कामों में आते हैं, हरे पक्के बांस से पतली आधा, पौअना, या एक इंच चौड़ी , बहुत पतली और कई फीट लम्बी पट्टियां ली जाती हैं , इनसे अनाज फटकने के सुप्पों से ले कर अनाज रखने के सौ दो सौ किलो क्षमता के ड्वारे,छोटी बड़ी टोकरिया, इत्यादि  बनाई जाती हैं,  रिंगाल,बांस  से भिन्न होता है, छोटा और पतला , रिंगाल के रेशों से  हाथ में लेजाने के लायक कंडिया खूबसूरत  अटेची के आकार के संदूक, बनाए जाते हैं और इनकी आयु  सालों दर साल लम्बी होते है. किसी जमाने में रिंगाल का ऐसा घरेलू सामान शान ओ शौकत का प्रतीक माना जाता था .
 
गेहूं , धान , मंडुआ , झंगोरा , और जौ  की नलियां   भी बड़े काम की होती हैं , इनसे , किसी जमाने में , हर गृहणी, रोटियान और एनी खाद्य वसुओं को रताजी आयर नाम रखने के लिए विविन्न्य आकारों की,ढक्कन दार रंगीन टोकरिया स्वयम बनाती थीं  और अपनी कला का प्रदर्शन करती थीं . अब इने जगह कसेरोलों ने ले ली है , लेकिन अब भी इसे कुटी उद्द्योग के रूप में, समुचित विक्सित टेक्नोलोजी के साथ, पुनर्जीवित किया जा सकता है.   

                                                    रेशे उद्यम में डिजाइन का महत्व 

रेशे उद्योग को बढाने के लिए सामयिक डिजाइनिंग   होना आवश्यक है।

                                                   वस्तु निर्माण में  नई तकनीक 

आज समय आ गया है की रेशे उद्योग अन्वेषण , निर्माण, निर्माण प्रशिक्षण  में नई तकनीक का समुचित उपयोग हो 

                                                 
विपणन /मार्केटिंग व्यवस्था 

विपणन विधि व मार्केटिंग चैनलों का होना भी आवश्यक है 

आज के युग मे, उप्रोक्त कुटीर उद्द्योग समाप्त प्राय हो गए हैं , आधुनिक  टेक्नोलोजी से उद्द्योहोंन्द्वारा बनाए गएप्रर्यायों ने इन्हें पीछे धकेल दिया है, . दुर्भाग्य से हमारी प्रयोगशालाओं ने इन जमीनी उपलब्धियों पर किसी भी प्रकार का न तो शोध ही किया है और न ही कोइ ऐसी उत्कृष्ट टेक्नोलोजी का अविष्कार करने की सोची है की ये प्रकृति की अमूल्य देने किस प्रकार से बढाई जान और कैसे इनके उपयोग किये जांय कि इनकी बहुउद्द्येशीयता  से पूरे लाभ लिए जा सकें। हमारे कृषि और बन अनुसंधान और शिक्षा संस्थाएं और विश्वविद्यालय इस पहलू पर पहल करें तो पर्वतीय रेशा उद्य्यम रोजगार का बड़ा जरिया बन सकता है.                                   .    .         

No comments:

Post a Comment

आपका बहुत बहुत धन्यवाद
Thanks for your comments