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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Wednesday, March 27, 2013

पर्यावरण पर विचार विमर्श


गौंका  मूस देहरादून जाणों तयार किलै ह्वाइ ?   
 
                                चबोड़्या - चखन्यौर्याभीष्म कुकरेती
(s = आधी अ )
 
 बडडि मूसि -ये बत्वार आलि तुमारि! जरा द्याखो त सै सि धिवड़ -द्यूं (दीमक ) ये खन्द्वार छोड़ि दौड़ दौड़ि   भागणा छन रे । याने कि यू पैलि बिटेन गढ़वाळी गौं  को यु  उजड्यूं कूड़ पुरो धराशायी होण वाळ च।  
छ्वटो मूसु -या  झड़ ननि अब ना अठिये (आठ साल की उम्र की बीमारी ) गे ज्वा धिवड़ो  भागण से  घबराणि च।
मध्य उमरो  मूसि -ये मूस ह्वैक बि मनिखों तरां अपण झड़ननि  बेजती करणी छे तू। हम मूस छंवां अनुभव अर चेतना पर हम विश्वास करदां।  धिवड़ -द्यूं जब अपण  जगा छोड़दन तो बींगि ल्याओ , समजि ल्यावो बल वा जगा धराशायी हूण वळि  च।  
हैंको जवान मूसु -पण ननि अबि त मजदूर धिवड़ -द्यूं अर कुछ मरद धिवड़ -द्यूं  हि गर गर भाजणा छन। जब राणि धिवड़ि बि भैर जाण शुरू होलि तो समजि ल्यावो यू खंद्वार ध्वस्त हूण वाळ च। मेरि चेतना बुलणि च आठ दस दिनोंम यु कूड़ सद्यानो खतम ह्वे जालो।
 बडडि मूसि - अरे स्यू द्याखो एक गुरा इना इ आणो च। तैक आँख या कुछ  तेज हुंदन रै। तैन समजि अल होलु कि हमारो सौ साल पुराणो मूसुं परिवार इखि च। कुछ कारो।
 मध्य उमरो  मूसि- ननि घबरा ना  हमर डुंडी (बिल ) द्वीएक  हथ अळग च अर यु गुरा तै दिवाल चढ़न माँ दिकत होलि।
 बडडि मूसि - ओ मै पर बिस्मिरिति ह्वे गे। चलो मि ये गुरौ पुछ्दो कि इना कना? ये गिवड़ो (गेंहू के खेत वाले ) गुरौ आज इना कखन अर किलै?
गुरौ - हाँ आज तो मूस बि गुराओं पर हंसणा छन, क्या करवां हम ? जोग ही इन छन।
  बडडि मूसि - ह्यां ह्वाइ क्या च जो पुंगड़ो सांप  अर गांव माँ ?
 गुरौ - ये यु बि अब गां कख रै गे। मि सरा गां घूमिक आणु छौं। ये गां मा सौएक मकान सब ध्वस्त पड्यां छन। जख तलक म्यार पुंगड़ो से इना गांवो तरफ आणों सवाल च तो पुटकै भूक मै इना लायि।
 बडडि मूसि -कनो उना हमारी मौस्या भाई बंद याने लुखुन्दर वगैरों क्या ह्वाइ।
गुरौ- तुम गांका मूस बि मनिखों तरां स्वार्थी ह्वे गेवां। अपण मौस्यरा भाइओं ख़याल इ नी तुम तैं। अरे जब गांव वाळ नि छन तो पुंगड़ बांज पोड़ी गेन अर अब उख ग्युं, जौ, झंग्वर, क्वादों, दाळ हुन्दो नी च तो बगैर भोजन का लुखुन्दर कनै बच्यां राला?
  बडडि मूसि - पण घास का दाण तो होला उना?
गुरौ - अरे काण्ड लगि गेन सरा गढ़वाल की सार्युं पर लैंटीना ही लैंटीना जम्युं च। घास को नाम नी च तो हमर शिकार लुखुन्दर नी छन तो हम सांप  कनकै ज़िंदा रौला। बस गुजर बसर होणि च। उन हमर जाति ज्वा लुखुन्दरों पर पऴदि छे वा खतम ही समझो।  
 बडडि मूसि - तो अब कना जाणु छे?
  गुरौ - जाण कख च अब? भाभर मा अर ड्याराडूण म खेती हॊन्दि छे वा बि उत्तराखंड राज्य बणणो बाद बंद ह्वे गे। सब जगा मकान ही मकान छन उख बि पुंगड खतम ह्वे गेन अब कनि कौरिक बि मि तैं बिजनौर पौंछण पोड़ल।
  बडडि मूसि - जा जा  अंक्वैक जै चील -चिल्न्गो से बचणी रै।                  
 मध्य उमरो  मूसि- अब बथाओ हम समझणा छया कि गां उजड़ण से हम घर्या मूसों साखि (Generation ) खतम होणि च। उना बि कुछ हौर इ हाल छन।
  बुडड़ि   मूसि- हैं इ क्या कथगा सालों बाद स्या  भ्यूंळ - खड़िक पर पळण वाळ चखुलि दिखेणि च? ये घिंड्वा (नर  पक्षी )! आज इथगा सालों बाद इना?
घिंड्वा- अरे द्वी साल बिटेन मि गढ़वाळ का एकेक गां घूमिक ऐ ग्यों पर मि तैं मेरि जोड़ी बणाणो खुणि  भ्यूंळ - खड़िक पर पळण वाळ चखुलि नि मिलणि च।
मध्य उमरै मूसि - कनो तेरि जाति  चखुलों हरचंत ऐ ग्याइ क्या?
 घिंड्वा- हर्चंत ही ना हमारी जाति ही निबटी गे , खतम ह्वे   गे।
एक मूस - क्या बुनु छे?
 घिंड्वा- अरे जब गढ़वाळम भ्यूंळ- खड़िक ही उगटि-निबटि गेन तो हम चखुल जो भ्यूंळ- खड़िकों दाणो पर निर्भर छया भि खतम ह्वे गेवां।
  बुडड़ि   मूसि- पण मीन तो सूणि छौ बल जब तलक   भ्यूंळ- खड़िकों  दाण तुमर पुटुक नि जांदा  भ्यूंळ- खड़िकों नि जामि सकदन।
  घिंड्वा- हां हम ख़ास किसमौ चखुल  भ्यूंळ- खड़िकों  पर निर्भर छया अर भ्यूंळ- खड़िक नई साखि  जमाणो बान हम पर निर्भर छया। पण हम द्वी गाऊं मनिखों पर बि निर्भर छया।
जवान मूस- म्यार बिंगण मा नि आयि कि गाऊं मनिखों इक्हम क्या सम्बन्ध?
  घिंड्वा-हम चाखुलों अदा से जादा खाणो गांका मनिखों अनाज हूंदो छौ अर फिर मनिख जब गढ़वाली खेतों मा खेती करदा छा तो खर पतवार साफ़ करदा छा, चक्र माँ फसल उगांदा  छा ।
मूस - तो  तो खर पतवार साफ़ हूण  से  अर  चक्र मा फसल हूण से  भ्यूंळ- खड़िक पर लगण वाळ कीड़ा अर बिमारि नि लगदी छे। हमर खाणक बंद होण से हम हरान (कमजोर ) हुवां अर उना मनिखों लैक फसल नि बुयाण से भ्यूंळ- खड़िकों पर बनि बनि कीड़ा अर बिमारि लगण से नया नया भ्यूंळ- खड़िकों डाळ बढ़ण बंद ह्वे गेन अर हम और भी भूक रौण लगि गेवां अर इन मा हमारि निबटात-खज्यात आइ। हम निबटा तो  भ्यूंळ- खड़िक खतम। अर अब मि द्वी साल बिटेन जोड़ी खुज्याणु छौं।
  बुडड़ि   मूसि- जख तलक म्यार ज्ञान बतान्दो तो भाभर तलक त्वै तैं गढ़वाळम मनिखों गां त मिलण से राइ याने कि भ्यूंळ- खड़िकों से हीन उजड्या गां।
 घिंड्वा-पण भाभर की जलवायु हमखुण अर   भ्यूंळ- खड़िकों लैक ठीक नी च। ना ही उच्चा डांड। दिखुद छौं कि कखि मेरी जोड़ी मिल जावु।
  बुडड़ि   मूसि-जा हां अंक्वैक जा। अरे यु क्या यू मुसक्या स्याळु ये बांज  गां मा क्या करणु च? हे  हमर जाति दुश्मन स्याळ आज इनै कनै?
स्याळ - अरे भुकान म्यार पराण जाणि वाळ छन। ये मूसो तुम अपण डुंड्यो से भैर आवा ना कुजाण कथगा हफ्तों से मि भूको छौं।
 बुडड़ि   मूसि- पण मेरि सौ साखि पैलाकि ननिक बोल छा कि स्याळ गढ़वळि   गावों मा नि आंदो।तो तू अर इना?
स्याळ -मजाक नि कौर अब कख छन गढ़वाळम गां?  सब उजाड़ ह्वे गे। मेरि भूक!
 बुडड़ि   मूसि- ह्यां पण ह्वाइ क्या च?
स्याळ - हूँण क्या छौ। जब तलक गढ़वाळम गांउं मा मनिख छा तो हमारि जाति  कुण मनिखों चैण -चम्वळ (पालतू -पशु) से काम चलि जांदो छौ।          
  बुडड़ि   मूसि-   ह्यां पण अब त सरा गढवाल ही जंगळ ह्वे गे अब तो तुमखुण मजा ही मजा!
स्याळ -खनो जंगळ! लैंटीना अर कुंळै जंगळउन हमार शिकार का खाणो निबटाइ दे अर जब हमारो शिकार का वास्ता ऊं  लैक घास -पेड़ नि होला तो हम स्याळउन बि निबटण ही च। अच्छा जान्दो छौं। 
 बुडड़ि   मूसि-  अरे ढुड्यार   भीतर जावो स्यु आस्मां बिटेन गरुड़ आणो च। मि तै तैं चिरड़ान्दु हाँ। हे गरुड़ कना जाणि छे रै।
गरुड़ -कख जाण। मरणों भाभर जिना  जाणु छौं।
 बुडड़ि   मूसि-ह्यां ! क्या  ह्वै?
गरुड़ -खन्नु ह्वै! मनिखों पलायन से सरा गढवाल को भौगोलिक वातावरण ही बदले गे  अर हम गरुडू लैक इख खाणों ही हर्ची गे। बस अब कुछ ही साल मा हमारि साखि निबटी-उगटि जाल।
 बुडड़ि   मूसि-जा जा मोर जख मोरणा इ उखि मोर।
जवान मूस - अरे सि क्या कवों डार (झुण्ड ) कख जाणि च अर दगड़म घर्या घिंडुड्यु  डार बि कखि जाणि च।
 बुडड़ि   मूसि-हे कवावो कना जाणा छंवां?
  कवों नेता - अब हम कवों अर घर्या घिंडुड्यु  कुण कुछ नि च ये गढ़वाळम। हम तो मनिखों दगड़ ही रै सकदां सो हम सौब शहरों मा रौणो बान  हमेशा वास्ता जाणा छंवां।                           
 बुडड़ि   मूसि-ये निर्भागियो मीन बोलि छौ कि ना यि धिवड़ -द्यूं (दीमक ) ये खन्द्वार छोड़ि दौड़ दौड़ि   भागणा छन। तो यि धिवड़ -द्यूं (दीमक ) ये खन्द्वार छोड़िक इलै नि जाणा छन कि इ खन्द्वार ध्वस्त होणु च बल्कणम गढ़वाल को पूरो वातावरण ही बदल्याणु च अर जो भी जानवर मनिखों  पर आश्रित छ्या ऊं तैं  या तो अपण जीवन शैली बदलण पोड़ल निथर मैदानों  तरफां जाण पोड़ल। चलो देहरादून जाणो तयारी कारो।    
 
Copyright @ Bhishma Kukreti   27/3/2013 

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