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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Monday, March 18, 2013

संस्कृति रक्षा


गढ़वाली हास्य-व्यंग्य 
सौज सौजम मजाक-मसखरी  
हौंस इ हौंस मा, चबोड़ इ चबोड़ मा
 
                            संस्कृति रक्षा  
 
                              चबोड़्या - चखन्यौर्याभीष्म कुकरेती
(s = आधी अ )
 
 -हे नागराजा , हे नर्सिंग ! मेरी पहाड़ी संस्कृति तैं बचाओ।हे देवी !
 -हे घंडियाळ! हे ग्विल्ल , मिथाळ! मेरी गढ़वाली सभ्यता तैं समाळ यिं तैं मोरण से बचावो!
- हे दिवताओ ! म्यरा रीति रिवाजों तैं बचाओं।
- हां ! हां !मी ई ग्यों, बोल बोल क्या क्या बचाण ? 
- हे मेरि ब्वे! तू कु  छे अर  तू इथगा अट्टाहासी हंसी किलै हंसणु छे?
- मि तेरि पुराणि संस्कृति , सभ्यता अर रीति रिवाजौ चिन्ह छौं , प्रतीक छौं।
-पण हे माराज तू इथगा जोर से किलै हंसणु छे? इख मुंबई मा जोर से हंसण वाळ तैं असभ्य अर अनकल्चर्ड माने जांद अर तेरि हंसी की आवाज कखि पड़ोसीक ड़्यार पौंछि गे तो वो पुलिसम शिकैत करि द्यालो . फिर पुलिस को लफड़ा ...
-ह़ा हा! संस्कृति बचाणों प्रार्थना करणु छे अर निश्छल हंसी से डरणि छे?
-  महाराज ! इथगा जोर अर निश्छल तरां से  तो मि लाफिंग क्लब मा बि नि हौंस सकदो। हंसी पर कंट्रोल ही तो आज सिविलाइज्ड लोगुं निसाणी च।
-अरे माराज मुंबई की बात तो जाणि द्यायो परसि पुण मि अपण गां जसपुर गे छयो अर मि कें पुराणि बात याद करिक जोर जोर से हौंस तो लोगुंन समज बल मि छळे ग्यों अर मीमा रखवळि करणों जागरि बुलाये गे। उख बि जोर से हंसण जंगली लोगुं निसाणि ह्वे गे।
-हा हा ! अपण आंतरिक , स्वाभाविक भावुं तैं त तू प्रकट करण से लाचार छे अर फिर बि सभ्यता बचाणो बात करणु छे?
- हाँ माराज हम बुद्धिजीवी, सामाजिक चिंतक, सोसल एक्टिविस्ट  अपणि सभ्यता -संस्कृति बचाणो बात नि करला तो गढ़वाली संस्कृति भेळ जोग ह्वे जालि! रसातल चलि जालि !
-हे मेरी ब्वे! भट्युड़ टूटि  गेन, हे मेरि ब्वे! 
- ओहो ओहो ! स्या  क्वा च, इंक शरीर पर पस्यौ (पसीना ) इ पस्यौ च, सरा सरैल से दुर्गन्ध आणि च   अर इथगा  जोर से किलै रुणि च स्या ? 
- अरे मि तेरि कृषि परिश्रम संस्कृति को प्रतीक छौं।
-पैल तों तू इथगा जोर से रूण बंद कौर। इथगा जोर से तो इख क्या गाउं मा बि क्वी जवान नौनु मोरण पर बि नि रोंदु।फिर पड़ोसीक इख त्यार रुणो आवाज ग्यायि ना कि पुलिस कम्पलेंट।  
-  अरे तू स्वाभाविक ढंग से रोइ  नि सकदी अर फिर संस्कृति बचाणों ध्येय करणु छे?
- हे मेरि ब्वे तैंकि सरैल की दुर्गन्ध से मेरी सांस बंद होणि च। ह्यां सया इथगा गंध सौराण वाळ क्वा च? 
- हां हां ! स्या  सौ साल पैलाकि तुमारि कृषी मा परिश्रम, परिश्रमी कृषि से बगदो पसीना अर शरीर से पसीना की गंध की बचीं खुचीं निसाणि च। वाह जब तू बुद्धिजीवी!  यीं परिश्रम की गंध तै नि सहन करि सकणु छे तो त्वै तैं  संस्कृति बचाणों बात करदि शरम , ल्याज  नि औन्दि?
-  ह्वी , ह्वी बल क्या बुलणु छे?
-अरे ! अरे इ तीन चार नंगी जनानी मेरि मोरि (खिड़की) मा क्या करणा छन। हे नंगी औरतो ! तुम म्यार ड़्यार बिटेन भागो। तुम म्यार इख इनि रैल्या त न्यूडिटी फैलाणों जुरम मा पुलिस मै तैं जेल भेजि देलि।
-वो बुद्धिजीवी, सोसल ऐक्टिविस्ट सि तेरि पड़ दादा की पड़ दादि। पड़ नानि अर बूढ़ ददी छन।
-  माराज !  पण म्यार पड़  ददा की पड़  दादि , पड़ नानि पूरी की पूरी नंगी किलै? बस यूंक सरैल पर सिरफ गंदो, चिरीं -फटीं  लंगोट ही च?
- हा हा ! संस्कृति की बात करण वाळ बुद्धिजीवी! त्वै तैं पता नी च बल वस्त्र अर कपड़ा पैरणो ढंग बि संस्कृति की निसाणि होंदी तो ईं संस्कृति से तू किलै डरणु छे ?
-माराज आज आदि वासी बि लंगोट नि पैरदन। तो फिर ..?
-तो तू इन बि जाणदि कि  सौएक साल पैलि गढ़वाली समाज बि तो आदिवासी जन ही रै होला कि ना?
 - अरे अरे यो को च अर आजीब सि बोली मा, अजीब भौण मा गीत गाणु च। ना ही भाषा समज मा आणि च अर ना ही पता चलणु च कि ये गीतौ भौण कै मुलकौक च?
-हा हा ! यू लोक गीत तीन सौ साल पैलि गढवाल का हरेक गां मा बडो चाव से  गाये जांदो छौ अर यो गिताड़ तुमारो ही जसपुर को लोकगीतकार च अर तीन सौ साल पैल तुमर गां मा यींयिं   भौणम गीत गये जांद छ्या।
-पण ना ही गीत का बोल मेरि समज आणा छन अर ना ही भौण समाज मा आणि च।
-   हां हे बुद्धिजीवी बोल! तू कैं  संस्कृति , कैं सभ्यता  बचाण?
-माराज मि घंघतोळ माँ ऐ ग्यों। मेरि समाज मा इ नि आणु कि संस्कृति अर सभ्यता को क्या रूप  होंद?
 -किलैकि तू संस्कृति या सभ्यता तैं  तालाब को ठेर्युं  पाणि समजदो जब कि संस्कृति या सभ्यता बगदी नदी च।
-  ये टोनी का डैडी जी ये टोनी का डैडी जी ! बीजो . पता च आज तुमन एक समारोह मा 'मरती गढ़वाली संस्कृति कैसी बचाए जाय' पर भाषण दीणो जाण।
-ये मेरी ब्वे ! तो यु एक सुपिन छौ। एक ड्रीम छौ।  डौली  डार्लिंग !  आज इटालियन ब्रेकफास्ट बणा भै !   
        
                           
 
 
Copyright @ Bhishma Kukreti   18 /3/  /2013

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