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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Friday, March 1, 2013

क्षेत्रीय भोज्य पदार्थों से उत्तराखंड पर्यटन विकास.


डा . बलबीर सिंह रावत


                                  स्वादिष्ट भोजन का केवल विचार आया, और मुंह में पानी आ जाना स्वाभाविक है। स्वभाव से मनुष्य घुमंतू भी रहा है और चटोरा भी, जहां भी स्वाद की तीन में से दो इन्द्रियों,आँखों और नासिका की जोड़ी को कुछ अच्छा लगा, उनसे इशारा पाकर जीभ में राल आने लगती है और मस्तिष्क से तुरंत पैरों को आदेश होता है की चलो इस स्वाद स्रोत के पास। ऐसे ही पैदा हुवा आज का भोज्य पर्यटन जिसे अंग्रेज़ी में culinary tourism कहते है. ब्रिटेन का सालाना भोज्य पर्यटन 8 अरब डौलर का है.
 
अंतरराष्ट्रीय कुलिनेरी टूरिज्म एसोसिएशन के अनुसार "यह पर्यटन एक अद्भुत और यादगार खाने पीने की खोज में जाते रहने का शौक है, जो पर्यटक को अपने देश और विदेश के नए नए स्थलों की सैर करने को उकसाता है, लालायित करता है, प्रेरित करता है" . और पूरा करा के ही दम लेता है. इस प्रकार के पर्यटन में भोज समारोहों, खान पान प्रतियोगिताओं, पाक कला प्रशिक्षणों, स्वाद परीक्षण कौशल और नए व्यंजनों की लोकप्रियता की परख के आयोजन होते हैं . नए तरीकों को परखने के अवसर होते हैं। और एक ऐसी आन्तरिक तृप्ति की अनुभूति मिलने का दुर्लभ अवर होता है, जो केवल अनजान व्यक्तियों के साथ सामूहिक भोज्य क्रिया कलापों से ही प्राप्त हो सकती है. इसी अनुभूति के अतुलनीय एहसास की खोज करने के लिए समर्थ लोग सात समुन्दर पा जाने का " साहस" करते हैं .

हमारे उत्तराखंड के दैनिक और विशेष अवसरों के पाक पदार्थों की अपनी अनूठी विशिष्टता है . फिलहाल यह अपने मूल, अपरिस्कृत रूप में घर घर में अलग अलग क्षेत्रों में विद्यमान है और इसका इसी रूप में आकर्षण भी है. चूंकि पाक पदार्थों और कला का स्थानीय कृषि और पशुधन उत्पादों से गहरा सम्बन्ध रहा है तो भोज्य ओर कृषि पर्यटनों का आपसी सम्बन्ध पूरक रहा है और रहेगा . हमें सबको याद है दशहरा दीपावलियों की छुट्टियों में गाँव में जाते थे .नयें धान के च्युड़े, अखरोट और तिल का मिश्रित स्वाद, वोह भिगोये धान को हिन्सरों में भूनना, उठती खुशबू, गरम गर्म भुने धान को दो महिलाओं द्वारा एक ही उर्ख्याली में वजनदार गंजेलियों से एक सिद्ध, सधी ताल से कूटना, और साथ साथ गीत गाते रहना " उन्नि धारा उर्ख्याली, उन्नी डाँडा बथाऊँ, उन्नि भारी गंज्यली, उन्नी मौस्याणी सासू", किसी दुखियारी बहू के वेदना का गीत समाप्त भी नहीं हुआ की बच्चों की हथेलियों में गरम गरम ,लाल सट्टी के चमच्युड़े दादी ने रखे. क्या दिन थे. यही दिन पुनरजीवित किये जाते हैं भोज्य प्रयटन मे. बर्हद आकार में . इसलिए भोज्य , कृषि और सांस्कृतिक प्रयटन अपने आप में आपस में जुड़ कर, ग्रामीण प्रयटन को लुभावना बनाते हैं .
 
उत्तराखंड के भोज्य पदार्थ को हम तीन श्रेणियों में बाँट सकते हैं, जैसे: १. दैनिक भोजन , २ . त्योहारों के भोजन, और ,३. पिकनिक के भोजन.
 
                                 दैनिक भोजन में दिन मे प्राय: भात, चावल का या झंगोरे का, दाल उरद की, गहथ की , छीमी की या इनके मिश्रण की, या फिर भिगोई, सिल में हाथों से पिसी दालों का फाणा, या कोरी पिसी उड़द का चैन्सा, मौसमी सब्जी, चटनी, ताजे नीम्बू का रस। रात को सब्जी , रोटी, कुछ दूध में आते की लपसी , झंगोरा के चावलों की खीर, या गुड की डल्ली। सुबह के नाश्ते में मंडुये की रोटी , हरा धनिया, लहसुन, भुने तिलों की चटनी और ताजी नौणी, या खुशबूदार कंकरीला गाय घी . जिसे एक अंग्रेज ने घर को चिट्ठी में लिखा था " यहाँ के लोग काली प्लेट में सब्जी मक्खन रख कर मय प्लेट के सब खा जाते है।" हैं न मजेदार, 'प्लेट' को भी खा जाना? .
 
                                                                और सब से ऊपर , सारा खाना लकड़ी के चूल्हे में (कम तापमान में) बना। इसका स्वाद तो चूल्हे के चारो और बैठ कर खाने में ही आता है. इन खेतों में पैदा की गयी खाद्य वस्तुओं के अलावा प्रकृति की गोद में उगे साग, जैसे कन्डाली, बसिंगा, लिंगुड़ा,खुन्तड़ा च्यूं , घंनगोड़े इत्यादि अति पौष्टिक और स्वादिष्ट बनस्पति हैं।कन्डाली ( बिच्छू घास - nettle ), जो हर जगह उगी नजर आती है और अपने विशैले रोओं के कारण तुच्छ समझे जाती है, में बीमारियों से लड़ने के लिए प्रतिरोधक शक्ति और रक्त बढाने के लिए सात विटामिन,बारह खनिज और ओमेगा-३ , ओमेगा -६ और नौ अन्य आवश्यक तत्वों का खजाना है. इसकी धबडी और बाडी तो अपने आप में ही सम्पूर्ण पौष्टिक आहार हैं। क्रिस्टन हार्टविग अपनी पुस्तक में इस कन्डाली को केंसर से लड़ने की, रक्तचाप कम करने की , रक्त्शोधक शक्ति वाला खाद्य मानते हैं और इसे सूप की तरह, या शकरकंद के हलुए के साथ खाने को कहते है (उन्होंने हमारी धबडी नहीं खाई होगी). छछिंडा तो उत्तराखंड का विशेष खाना है, ओह भी लोहे की कढाई में बना लौह खनिज से युक्त.

बन फलों में काफल, हिन्सोले, किन्गोड़े, करोंदे, तिम्ला, बेडू , घिंगारू (शहतूत) कभी प्रचुर मात्रा में मिलते थे, अब भी इनकी उपज बधाई जा सकती है. हिन्सोलों की तो कनाडा में बाकायदा खेती की जाती है. इनमे सर्दी-जुकाम से, अलेर्जी से, खांसी से, गंठिया से और केंसर तथा डाइबिटीज से लड़ने की शक्ति होती है. तात्पर्य यह है की उत्तराखंड में नाना प्रकार के ऐसे दुर्लभ खाद्य पदार्थ पैदा करने की संभावना है जिनका स्वाद लेने के लिए दुनिया के हर कोने से प्र्यक्त आ सकते हैं, वशर्ते हम आकर्षक भोज्य प्रयत्न की अच्छी प्रकार से संगठित व्यवस्था कर सकें और आगंतुकों को इतना प्रभावित कर सकें की वे स्वयम तो दुबारा आयं , अपने मित्रों को भी लांय और हमारे प्रचार के स्वेच्छिक वौलेंटियर बने रहें .

                         विशेष अवसरों के विशेष खाने हैं : स्वाले, उड़द, झिलंगी के भूड़े -पकोड़े , पूरी, खीर, कद्दू की सब्जी जिसमे भुनी लाल मिर्च साबुत पडी होती हैन. और झ्वल्ली तथा झंगोरे का भात, और झ्व्ल्ली- गुड़ का मीठा भात तो अब देश में भी अ गया है. अरसा पर्वतीय इलाकों का वोह विशेष, कई दिनों तक सामान्य तापमान में सुरक्षित रह सकने वाला पकवान है जिसके बनाने, बाटने , और खाने में सामाजिक, और पारिवारिक लगाव इतना घुल मिला होता है की इसकी मिठास की अनुभूति शब्दों में नहीं वर्णित की जा सकती . मूलत: अरसे बेटी की बिदाई पर साथ भेजी दूंण-कंडी का अभिन्न हिस्सा है, लेकिन अब यह प्रवासी परिवारों के एक साथ आने के अवसर पर भी बनाया जाने लगा है.
 
                                         सरयूलों (उत्तराखंड के विशीष उच्च जाती के ब्राह्मणों से बने रसोइये) द्वारा बनाये गए सामाजिक कार्यों के भोज तो अपनी सानी नहीं रखते। वह ताम्बे के तौलों में बनाया गया मीठा भात, मालू के पत्तों की सुगंध वाला, साथ में गाढी , झ्व्ल्ली, गरम गरम भात और मसालों व ताजे घी से भरी उड़द की लोबडी दाल। और यह सब एक पंक्ति में , सब के साथ बैठ कर खाना। ऐसा मौक़ा जीवन में कुछ ही बार आता है, इसलिए यादगार होता है.

                               पिकनिक के भोजनों में दाल-ढुंगला, तो प्रसिद्ध है ही, साथ एक पुराना , अब भुलाया जा चुका भोज्य पदार्थ भी है, गीली मिट्टी के आवरण में ढका कर हल्की आंच की भट्टी में भुना हुआ आलू, मसालेदार मछली , तीतर, मुर्गा, बटेर ,तथा बकरे का बारबेक्यू किया हुआ मान्स. गोबर के कंडों में , कन्द्लाऊ के पत्तों के बीच सिके ढुंन्गलों का आनन्द अबर्नीय है, इसलिए जानने के लिए बनाकर खाना ही पड़ता है.

                                        और पर्वतीय जलस्रोतों के, जडी-बूटियों के रसयुक्त शीतल मीठे जल का अपना आकर्षण है. जिसमे बना हर भोजन जब बनाने , खिलाने वाले के हार्दिक स्नेह से स्नेह से भरा होता है तो आत्मिक आनद आना स्वाभाविक होता है. इस भोज्य प्रयटन को सुलभ बनाने के लिए, कुछ सुझाव है.:

१. ४.७५ करोड़ रूपये की लागत से अल्मोड़ा में जो फ़ूड क्राफ्ट संस्थान की स्थापना की जा रही है, उसमे पूरे उत्तराँचल के विशिष्ठ भोज्य पदार्थों के बनाने की रेसिपियों का मानकीकरण करके व्यावसायिक उत्तराखंडी भोज्य इकाइयों के लिए प्रशिक्षित और प्रवीन शेफ तैयार करना,

२. जो १६ टूरिस्ट सर्कल मँजूर हुए हैं , उनमे से प्रतेक पर, शुरूआत के लिए कम से कम ,एक पर्वतीय भोज्य स्थल की स्थापना और और विकास रक्खा जाय,

३. प्रसिद्ध सांस्कृतिक मेलों में, विभिन्न व्यावसायिक मेलों में, प्रदर्शनियों में पर्वतीय भोज्य सुविधा अनिवार रूप से हो,

४. फलों, के सीजन में फल मेलों का आयोजन शुरू किया जाय, और पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए, खेल कूद, सांस्कृतिक और शिक्षाप्रद कार्यक्रम आयोजित करने की व्यवस्था की जाय।

५. आगंतुकों के रहने का प्रबंध आकर्षक गाँवों में, मेला स्थानो/फल बागानों के निकट स्थानीय लोगों के बीच हो तो और भी आकर्षक हो सकता है.

६. ऐसे मेलों का आयोजन गर्मियों की स्कूल कोलेजों की छुट्टियों के समय और दशहरा दीपावली के बीच के समय में सर्वोतम रहेगा . 

  डा . बलबीर सिंह रावत

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