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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Friday, December 2, 2011

श्री नैथना देवी मंदिर


1. गोरखों की गढ़ी (किला)

मंदिर के पास ही गोरखों की गढ़ी है जो अब खंडहर के रुंप में है। कहा जाता है कि यहां से दूरबीन से दिल्ली देखा जा सकता था। सन् 1815 में गोरखों ने अंग्रेजों के साथ समझौता करके कुमाऊंं व गढ़वाल के जो क्षेत्र उनको दिए थे उनमें से यह गढ़ी भी एक थी। इस गढ़ी का जीर्णोद्धार कर इसको पर्यटन स्थल के रुंप में विकसित करना वर्तमान संस्था का मुख्य उद्देश्य है। संस्था ने इस मामले को सर्वोच्च स्तर पर उठाया है।

2. उत्तमसांणी

नैथना मंदिर से लगभग 2 किलोमीटर पूर्व की तरफ सुरम्य उत्तमसांणी पर्वत है जो चीड़, बांज व काफल के पेड़ों से घिरा हुआ है। यहां पर राजकीय इंटर कालेज है। ट्रैकिंग के लिए यह उत्तम स्थान है।

3. महादेव मंदिर

नैथना देवी मंदिर के पूर्व की ओर 3 किलोमीटर की गहराई में पाण्डव कालीन प्रसिद्ध बागनाथ (महादेव) का मंदिर है। यह स्थान बागेश्वर के नाम से प्रसिद्ध है। महाशिव रात्रि पर्व पर यहां मेला लगता है।

4. पाली

मंदिर के दक्षिण-पश्चिम में पाली नामक स्थान है। यह स्थान किसी समय इस क्षेत्र की शिक्षा का प्रमुख केन्द्र था। यहां किसी समय में तहसील भी रही है और सरकारी पाली के नाम से भी प्रसिद्ध है। यहां पर सन् 1900 में सबसे पहले अंग्रेजों ने मिडिल स्कूल की स्थापना की थी, अब यहां पर इंटर कालेज है। यहां से नैथना पर्वत का नयनाभिराम दृश्य दिखाई देता है।

5. मासी

नैथना पर्वत के मूल में रामगंगा का तट पर " मासी " बसा हुआ है। यह मोटर मार्ग द्वारा सभी स्थानों से जुड़ा हुआ है। रामगंगा के तट पर ही बसी हुई सुरम्य उर्वरा गेवाड़ घाटी है जो कभी महाभारत कालीन विराट राजा के अधीन थी। मंदिर से देखने पर यहां का दृश्य मनोहारी लगता है। लोक प्रसिद्ध भूमिया मंदिर भी यही स्थित है।

6. द्वाराहाट - दूनागिरी

नैथना मंदिर से 20 किलोमीटर की दूरी पर द्वाराहाट और दूनागिरी नामक स्थान है जो मोटर मार्ग से नौबाड़ा से जुड़े हुये हैं। द्वाराहाट में 12वीं व 13वीं शताब्दी के 365 मंदिर व नौले हैं। प्रसिद्ध विद्वान पंडित राहुल सांकृत्यायन इन मंदिरों का निरीक्षण करने के लिए 1953 में यहां आये थे। जब उनका ध्यान नैथना पर्वत पर स्थित गोरखों के एकमात्र स्मारक " गढ़ी " की ओर गया तो वे इसको देखने के लिए बड़े उत्सुक हुए थे, लेकिन किन्हीं कारणों से वे वहां नहीं जा सके। इसी स्थान पर नैथना देवी मंदिर के वर्तमान स्वरुंप के निर्माता संत-शिरोमणि स्वामी हरनारायण जी की समाधि भी है।
7. सूर्योदय व सूर्यास्त का अद्भुत दृश्य

यहां प्रात:कालीन उगते सूर्य की स्वर्णिम किरणें माँ के चरणों में प्रणाम करती हैं तथा एक मनोहारी दृश्य उपस्थित करती हैं और सूर्यास्त के समय भी ऐसा लगता है मानो सूर्य माँ से दूसरे दिन जल्दी आने का वादा करके जा रहे हों। प्रकृति के इस अनुपम दृश्य को देखना जीवन की एक बड़ी उपलब्धि एवं शुभ माना जाता है।

या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धा रुंपेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
(जो माँ भगवती समस्त प्राणियों में श्रद्धा रुंप से स्थित है उनको बारम्बार नमस्कार है)

सर्व रुंप में व्याप्त माँ का यह स्थान कब से आलोकित था यह तो शायद ही कोई बता पाये लेकिन स्थानीय लोगों पर अपनी कृपा प्रदान करने हेतु माँ किसी निमित्त से विग्रह के रुंप में प्रकट होती है। लोक कथा है कि जहां माँ का यह विग्रह स्थापित है वहां पर झाड़ियां थीं। अल्मोड़ा जिले में सोमेश्वर के पास चौड़ा नामक गांव का एक परिवार पलायन कर ग्राम गोहाड़ के पास बस गया। इन लोगों के एक भाई मुनि हो जाने के कारण इस गांव का नाम मुनियाचौरा पड़ा जो आज तक प्रचलित है। छोटा भाई खेतीबाड़ी का काम करता था और गाय-भैंस पालता था। इस परिवार की एक गाय प्रतिदिन रात को नैथना देवी के इस विग्रह पर आकर खड़ी हो जाती थी और अपने समस्त दूध को माँ के विग्रह पर चढ़ा देती थी तदुपरांत घर लौट आती थी। गाय के मालिक को लगा कि शायद रात में कोई व्यिक्त दूध को दुह लेता है। इस रहस्य को जानने के लिए एक दिन वह छिपकर गौशाला में गाय पर नजर रखने लगा। उसने देखा कि अचानक आधी रात को गाय अपने आप खूंटे से खुलकर बाहर निकली और उत्तर दिशा की ओर पहाड़ी पर चली गई तथा प्रात:काल से पहले वापस आकर अपने खूंटे से बंध गई। इस घटना से वह व्यिक्त विचलित हो गया।

तदुपरांत उस व्यिक्त ने एक दिन हाथ में कुल्हाड़ी लेकर गाय का पीछा किया। उसने देखा कि गाय झाड़ियों में जाकर अपना दूध निखार रही थी। वह इस बात से अनभिज्ञ था कि गाय अपना दूध देवी की मूर्ति पर निखार रही है। क्रोधित होकर उस व्यिक्त ने माँ के विग्रह पर कुल्हाड़ी से वार कर दिया। जिसका निशान आज भी स्पष्ट रुंप से देखा जा सकता है। वह इतना भी विवेक नहीं कर पाया कि यह किसकी माया है? उसे तो साक्षात दर्शन मिल चुके थे। शायद प्रारब्ध ही ऐसा रहा होगा। उसी समय आकाशवाणी हुई कि तुमने यह ठीक नहीं किया इसका फल तुम्हें भोगना पड़ेगा। कहा भी गया है कि:-
"अवश्यमेव भोक्तव्यम् कृतम् कर्म शुभाशुभम्"
(किये गये शुभ और अशुभ कर्मों का फल भोगना ही पड़ेगा)।


घटना से भयभीत घर लौटकर उसने सारा विवरण अपने पुत्रों को बताया। वे भी यह सुनकर बहुत दुखी हुए और डरकर कालांतर में वहां से पलायन कर तीन-चार किलोमीटर दूर पहले चौड़ा, फिर नैला में जाकर बस गये। लेकिन उनको शांति नहीं मिली। अनेक प्रकार के कष्टों, दु:खें, महामारियों, गरीबी ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। अपने पूर्वजों के साथ घटी घटना से वहां के लोग भलीभांति परिचित थे। ऐसी स्थिति में उन्होंने नैथना देवी की अराधना की और वचन दिया कि भविष्य में उनके गांव की नवप्रसूता गाय का पहला दूध और गांव की फसल के प्रथम अनाज का भोग नैथना देवी को अर्पित करेंगे। तब से लेकर आज तक यह परंपरा निर्बाध रुंप से चल रही है वहां के लोग इस परंपरा का श्रद्धापूर्वक पालन कर रहे हैं।

मंदिर के प्रांगण में प्रतिवर्ष भाद्रपक्ष मास की संक्रान्ति को एक विशाल मेला लगता है जो "घी संक्रान्ति मेले" के नाम से प्रसिद्ध है। जिसमें सुदूर गांवों के लोग हजारों की संख्या में माँ के दर्शन करने आते हैं।

ऐसी भी मान्यता है कि क्षेत्र में भयंकर अकाल पडने पर और महीनों तक वर्षा नहीं होने पर आसपास के गांवों के लोग घड़ों के पानी से देवी की मूर्ति का अभिषेक करते हैं और देवी को अक्षत, तिल, फूल आदि अर्पित करते हैं। इस अभिषेक का परिणाम यह देखा गया है कि इलाके में वर्षा हो जाती है।

अध्यात्म के साधकों को यह स्थान अनेक अलौकिक सिद्धियों को प्राप्त करने का अनुपम स्थान है। यहां योग साधना करने वाले साधु-संतों को दिव्य ऊंर्जा की अनुभूति होती है। मंदिर के गर्भ गृह में ध्यान-मग्न साधक को शक्ति का स्पन्दन अनुभव होता है। मंदिर के चारों ओर सूक्ष्म तरंगों का महाकाश स्पष्ट महसूस होता है। स्वनामधन्य सन्यासी श्री हरनारायण स्वमी जी इन्हीं सूक्ष्म तरंगों से सदैव ओतप्रेत रहते थे।

अध्यात्म के साधकों को कुछ कठोर नियमों का पालन करना पड़ता है। यही कारण है कि नैथना-नौबाड़ा ग्रामों में चारपाई पर सोने पर प्रतिबंध है। "सादा जीवन उच्च विचार" से प्रेरित होकर जमीन पर सोने का नियम है। यहां आने वाला कोई भी व्यिक्त ऐसा नहीं है जिसे आध्यात्मिक शांति न मिली हो।



" नैथना देवी " शक्तिपीठ वैष्णवी शक्ति के रुंप में प्रतिष्ठित है। यहां शुद्ध सात्विक वैष्णव पद्धति से पूजा-अर्चना की जाती है, मांसाहार और बलि प्रथा का एकदम निषेध है। नैथना ग्राम के ग्रामवासी प्रात:कालीन और सायंकालीन पूजा-अर्चना करते हैं। नवरात्र के दिनों में यहां दर्शनार्थियों की भारी भीड़ लगी रहती है। मंदिर के गर्भ गृह से पहले भैरव जी का एक छोटा सा मंदिर है। मंदिर के पास ही यज्ञशाला है जो अपने प्राचीन स्वरुंप में स्थित है। मंदिर के चारों ओर असंख्य घंटियां

लटकी हुई हैं जो इस बात की साक्षी हैं कि शुद्ध मनोभाव से देवी दर्शन करने वालों की मनोकामना अवश्य पूर्ण होती है। नौबाड़ा गांव के श्री नरसिंह रौतेला ने जिनकी उम्र 85 वर्ष से भी अधिक थी, इस ठंडे स्थान में एक वर्ष तक निर्वस्त्र रहकर साधना की। साधना का प्रभाव यह हुआ कि पहले जो उनकी आंखों की दृष्टि चली गई थी, वह वापस आ गई। वे अच्छी तरह से सबको देख सकते हैं।
By पं. भास्कर जोशी

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