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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Thursday, April 1, 2010

अलकनंदा

एक नदी ही नहीं,
सभ्यता और संस्कृति,
संजोए है पहाड़ की,
अपने में समाहित करके,
बह रही है निरंतर,
युगों से पहाड़ पर,
अल्कापुरी से सागर तक.

कल्पना करो,
यदि अलकनंदा नहीं होती,
तो पंच प्रयाग नहीं होते,
आस्तिक हमारे देश के,
पवित्र स्नान करके,
तटों पर इसके,
शुभ पर्वों पर,
पाप कैसे धोते?

निर्मल नीर अलकनंदा का,
कहीं कोलाहल करते हुए,
निरंतर बहता जाता,
प्रदूषित नहीं करना मुझे,
सन्देश अपना बताता.

रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "ज़िग्यांसु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित ११.३.२०१०)
बागी-नौसा(चन्द्रबदनी), टिहरी गढ़वाल
E-mail: j_jayara@yahoo.com
Contact: 09868795187

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