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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

उत्तराखंडी ई-पत्रिका

Wednesday, February 24, 2010

भरोसा कू अकाळ

जख मा देखि छै आस कि छाया
वी पाणि अब कौज्याळ ह्‍वेगे
जौं जंगळूं कब्बि गर्जदा छा शेर
ऊंकू रज्जा अब स्याळ ह्‍वेगे
घड़ि पल भर नि बिसरै सकदा छा जौं हम
ऊं याद अयां कत्ति साल ह्‍वेगे
सैन्वार माणिं जु डांडी-कांठी लांघि छै हमुन्
वी अब आंख्यों कू उकाळ ह्‍वेगे
ढोल का तणकुला पकड़ी
नचदा छा जख द्‍यो-द्‍यब्ता मण्ड्याण मा
वख अब बयाळ ह्‍वेगे
जौं तैं मणदु छौ अपणुं, घैंटदु छौ जौं कि कसम
वी अब ब्योंत बिचार मा दलाल ह्‍वेगे
त अफ्वी सोचा समझा
जतगा सकदां
किलै कि
अब,
दुसरा का भरोसा कू त
अकाळ ह्‍वेगे

copyright@धनेश कोठारी

"चौपालों पर चुप्पी"

बैठते थे बुजुर्ग जहाँ पर,
मिलकर हुक्का गुड़गुड़ाते,
बातें करते, सुनते सुनाते,
भाई चारे की बात बताते.

न्याय का मसला जब आता,
पंच परमेश्वर न्याय दिलाते,
चहल पहल हर वक्त रहती,
हर पल हँसते खिलखिलाते.

क्या बताएं, वक्त बदला,
बूढ़े हो गए अपने गाँव,
"चौपालों पर चुप्पी" छाई,
पड़ती है वृक्ष की छावं.

निहारी थी कवि "ज़िग्यांसु" ने,
अपने गाँव में चौपाल,
लगाते थे मंडाण वहां पर,
देवी देवताओं का हर साल.

रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "ज़िग्यांसु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित, २१.२.२०१० ७.४५ सायं)

सुनो नहीं, देखो

दूरदर्शन के आने से पहले,
सुनते थे सभी लोग,
रेडियो से खबर और गाने,
लोकप्रियता पाई इतनी,
झुमरीतल्लैया के लोग,
फरमाइश करते थे पत्र लिखकर,
सुनते थे गाने मनमाने.

रेडियो नजीबाबाद से,
जब प्रसारित होने लगे,
लोकप्रिय उत्तराखंडी गाने,
पहाड़ की वादियों में गूंजने लगे,
मनभावन कुमाउनी, गढ़वाली गाने.

पहाड़ छूटा रेडियो भी,
दिल्ली में दूरदर्शन अपनाया,
कहता है "सुनो नहीं, देखो"
कवि "ज़िग्यांसु" को,
चारों पहर यही बताया.

रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "ज़िग्यांसु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित, २१.२.२०१० ११.४५ रात्रि)

"सुख अर दुख"

सुख की कामना सब्बि करदन,
दुःख की क्वी नि करदु,
भोग्दु छ मन्खि सुख सदानि,
दुःख देखि पल पल डरदु.

दुःख ऊकाळ छ ,
सुख सैंद्यार छ,
द्वी छन मन्खि का खातिर,
दुःख जब मन्खि का दूर ह्वै जान्दन,
बल भूली जान्दु फिर.

सुख कू स्वाद सदानि भलु लग्दु,
मन्खि बद्रीविशाल जी तैं भूली जान्दु,
मायाजाळ मा अल्झि अल्झि ,
परमपिता कू ध्यान नि लगान्दु.

"सुख अर दुख" मन्खि का खातिर,
अतीत सी छन दगड़ा,
तेल, तवा कू साथ त देखा,
तब बणदा छन लगड़ा.

दुःख की घड़ी मा बल मन्खि,
भगवान जी कू नौं लेन्दा,
सुख की घड़ी मा मतलबी मन्खि,
चैन की नींद छन सेन्दा.

रचनाकर: जगमोहन सिंह जयाड़ा "ज़िग्यांसु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित २४.२.२०१०)
जन्मभूमि: बागी-नौसा, चन्द्रबदनी, टिहरी गढ़वाल.
कर्मभूमि: "दर्द भरी दिल्ली"

द्वी छ्वटी कविता

(1)
नयु राज्य
अयु बांठ |
हौरुकी दसा जखा तखी
गलादरून का ठाठ |

(2)
जनी पौंछि वो मथि
निकलिगैन वेका सिंग |
खाली हथ देखि
भौर्याकी आन्द |
बंद मुठी देखि
दुबकी जांद |

copyright@विजय कुमार 'मधुर'

Tuesday, February 23, 2010

सुख

सुख
तब बि छाया
जब हम नि छाया

पर तब सुख
इतगा छांटा
इतगा ख्वींडा नि छाया
जतगा आज

तब सुख सुख्यर्या छाया
वो/ हैंसदाख्यलदा
आन्दा छाया
अर मनखंयू कि मनख्यात देखी
वखि बासा रै जांदा छाया
वूतैं दड़सांसो अर
हिकमत दे जांदा छाया

सुख तब बि राला
जब हम नि रौंला
भौद ओरि बि छांटा अर
ओर बि ख्वींडा ह्वे जाला
तब लोग कनके
यों सुखु तैं भ्वागला
कनके भ्वागला

copyright@मदन मोहन दुकलाण

दुःख

दुःख तब बि छाया
जब हम नि छाया
पर तब दुःख
इतगा घैणा अर पैना नि छाया
जतगा आज।

दुःख
तब बि आन्दा छाया
सतान्दा छाया / रुंवांदा छाया
आदिम तैं अजमान्दा छाया
अर देखी
आदिमे सक्या वेका तापा
दुःख दुख्यर्या ह्वेकि
लौटि जांदा छाया
आजे तरों
बासा नि रैंदा छाया।

दुःख तब बि राला
जब हम नि रौंला
भौद वो
हौर बि घैणा
और बि पैना ह्वाला
तब लोग
दुःखु तैं कनकै साला
कनकै साला

copyright@मदन मोहन दुकलाण

Monday, February 22, 2010

"हद करदी आपने"

"जहाँ तुम ले चलो" चलता हूँ,
हमें अल्विदा कहकर चले गए,
‘दायरा’, ‘हम तुम पे मरते हैं’,
‘शिकारी’, ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’,
‘औजार’, ‘इस रात की सुबह नहीं’,
‘गॉड मदर’, ‘प्यार किया तो डरना क्या’,
‘जहाँ तुम ले चलो’, में अभिनय करके,
यादें अपनी छोड़ गए.

अभिनय और निर्देशन करके,
अपनी कला का प्रदर्शन किया,
पहाड़ ही नहीं पूरे देश को,
भरपूर मनोरंजन दिया.

पहाड़ के प्रसिद्ध अभिनेता,
निर्देशक निर्मल पाण्डे जी को,
अपने पास बुलाकर प्रभु,
"हद करदी आपने".

पहाड़ नतमस्तक है आज,
दुखी है पर्वतीय समाज,
श्रधांजलि आपको हमारी,
दुःख हमें अनंत है आज.

श्रधांजलि रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "ज़िग्यांसु"
E-Mail: j_jayara@yahoo.com
19.2.2010

Jyundal : Garhwali Poems Showing Aggravating State of Uttarakhand State

History of literature
History of Garhwali, Kumaoni, Himalayan Literature
Jyundal : Garhwali Poems Showing Aggravating State of Uttarakhand State
(Review of Poetry Collection Jyundal of Dhanesh Kothari )
Bhishma Kukreti

The readers know Dhanesh Kothari as the Garhwali language poet born because of Uttarakhand state movement and Kavita movement in Garhwal by Dhad organization. His poems in his first collection of poems Jyundal are the poems showing frustration, rage, sadness, irritation, hopelessness over the state of a decade old new Uttarakhand state .
The eminent Garhwali poet and critic Virendra Panwar says that the poems of Dhanesh are the poems of awakening to Uttarakhandi.

Dhanesh started the poetry journey when the separate Uttarakhand state movement was on its peak and Dhanesh categorically shows the need, aspiration points for separate Uttarakhand state in a couple of poems in this volume. However, most of the poems in this volumes are pin pointing the non fulfillment of aspirations, anticipates, wishes, needs, utmost necessities of people of Uttarakhand . The poet Dhanesh Kothari lambastes for presnt state of Uttaranchal not only to politicians and authorities but also the people and tell them in plain words to act upon against the politicians or villains with stern punishment:

Tin vote diyale
Tin neta bi binaural
Ab teri ni sundu
At/mar ek khaidai

Dhanesh deals with as many as hundred subjects in this poetry collection , which are burning issues of rural Garhwal and Kumaun. Those burning issues are the deceiving nature of political world, the corrupted administration, the deterring position of villages due to migration, faulty planning spoiling the basic of ecological preposition of Himalaya, increasing imbalances between the riches and living below poverty line , downfalls in the culture and love for own languages and many more. There poems related to social issues, issues related to formal education and informal education taken by the society, water shortage in the land of rivers as Alaknanda , Ganga, Jamuna, Nayar Hinwal etc too in this volume of poetry. Dhanesh uses different images, exclusive symbols and symbolic words or proverbs for narrating each subject differently that all poems become vibrant and compel the readers to read all in one sitting. Dhanesh believes that the job of river is flow and provide fresh water but be within the boundaries too. Same way, Dhanesh uses new symbols but does not hesitate older versions of symbols as “ Laga Khaidai ki”
Dhanesh is expert of describing bigger panorama in few words as famous Urdu poet Nazish Pratapgadhi describes a fearful condition in few words:

Ye bhukh ye jillat ke dere , ye mauto tabahi ke fere
Ab kaun bataye ye sab kuchh, kis samt ishara karte hain

Dhanesh just do not pleads for old orthodox way of thinking but appeal for taking modern ways for betterment of humanity and that is why he choose new style of creation poems in Garhwali. Dhanesh creates poems in all old lyrical style -Geet, non lyrical and atukant poems .
The narrating style of Dhanesh is simple and the readers can connect with the thought of the poet easily . His poems are so vibrant that readers start thinking for some kind of actions . Dhanesh involve readers by many means as emotional exploitation, by sharp satire, by inspirational style and wording . His main aim is to coerce the readers for thinking and be ready for taking some actions.

The present volume Jyundal speaks that the Garhwali language poems are taking new path for becoming competent enough to get recognition among all International languages . The poems of Jyundal provide assurances that very soon garhwali literature will get its due . Definitely , Dhanesh is one of the promising the jewel of Garhwali poetry who will take Garhwali poetry to its zenith.

Jyundal
A Garhwali poetry collection
By Dhanesh Kothari
Dhad Prakashan
74 A New Connaught Place
Dehradun 248001
Price Rs 50

Copyright@ Bhishma Kukreti , Mumbai, India, 2010

"फूल्याँ फूल"

फूल्युं छै तू यनु न भूल,
त्वैन सदानि यनु नि राण,
भौरां त्वै फर रिटणा छन,
ऋतु बसंतन चली जाण.

जवानी होन्दी चार दिन की,
फिर ह्वै जांदी अँधेरी रात,
त्वैन सदानि खिल्युं नि राण,
माण ली तू मेरी बात.

खिच्च हैन्सणि छैं तू अबरी,
क्वी त्वे तैं तोड़ी माळा बणालु ,
तेरा भाग मा कुजाणि क्या छ?
न जाणी त्वे तैं कख चढ़ालु.

रंग रूप हेरिक तेरु,
मनखी अफु जांदा भूल,
चार दिन की होन्दी चांदनी,
"फूल्याँ फूल" यनु न भूल.

रचनाकार एवं छायाकार : जगमोहन सिंह जयाड़ा "ज़िग्यांसु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित १८.२.२०१०)
ग्राम: बागी-नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी, टिहरी गढ़वाल

ब्यौली कु मामा

{कौथीक माँ,यु के का चीफ मिनिस्टर कु उद्घाटन दिवस का समय पर , नि आण पर }

ब्यौली कु मामा

सुन्दरी कु ब्यू क दिन जनी नाजिखू आंदा गिनी , वीका ब्व़े- बबन , गौ भयात, आस पडोस दूर- दराज का नाता रिसतादरु थे न्यूत भिजण शुरू कैदे ! सुन्दरी कु ममा देहरादून माँ छो काम कनु स्यु साब वीथी तक लगे की पीली त फोन से , फिर चिठ्ठी , फिर निमंत्र्ण पत्र भेजी वोद नाद कैकी बोली गई की १९ २० को भाणजी ब्यू च वेल उभरी बोली की .... हा हां ह .. मी पहंचु एक स्फ्ता पैली !

सहरु माँ खाशकर मुम्बे जन सहरुमा हर चीज मैंगी ! खैर , सुन्दरी का बब्ल अपनी औखात क अनुसार हर चीज कोरी ! कै भी चीम कमी नि रेजो वें अपणी समणी , अपणी आंख्यु न करी ! पंडाल . साजो सामान , खाणी- पैनी सब कुछ ! जनी तारीख नाजिखू आई वनी पौणा न्युतेर भी आणा शुरू ह्व़ाय ! एक हफ्ता पेल बीटी उनका घरमा रौनक ही रौनक ...! घर सजी, पंडाल सजी, बेदी सजी , ! बरातों दिन भी आगई ! बरात भी आई ! आवा भगत का बाद बेदी माँ फ्यारा फौरा ह्वेनी ! पंडाजिल बोली ' ------- ये भाई नौनी कु मम्मा थे बुलावा , " सब लगी मामा थे खुज्याँ पर ! ममा देख्या त आई नि ! तभी कैल बोली ' अजी ई त गे छा पर यखना अपणा ससुरास्म " ! वो ... , सरकरी खर्च्मा होलू आयु , तभी कैल बीचम व्यंग माँ बोली ! " हां भाई .. भांजी थे थै कभी मिली जै सकद आर मिली भी जालू पर स्याल सायली हे बाबा .. कनी बात छा कना .. ???

एक बुजर्गल बोली पंडा जी सरासरी मन्त्र पडा ! कख छा लगया ! ब्युली गे, बरात ग़े, न्युते गया पर ममा अभी तक नि आयु !

पराशर गौड़
दिनाक २१ फरबरी २०१० दिन्म

Tuesday, February 16, 2010

मूर्तिकार का संकल्प

पहाड़ के हर पत्थर में,
एक मूर्ति छुपी होती है,
जब कोई मूर्तिकार,
तराशता है पत्थर को,
कल्पना होती है साकार,
अहसास होता है तब,
मूर्तिकार के संकल्प से,
पत्थर पिघल गया,
और ढल गया,
एक कलाकृति के रूप में.

देखी होंगी मित्रों आपने,
देवभूमि उत्तराखंड में,
देवी देवताओं की मूर्ति,
जिन्हें तराशा होगा,
पहाड़ के पत्थरों में से,
देवभक्त मूर्तिकारों ने,
संकल्प लेकर,
देखेंगी आने वाली पीढ़ी,
आस्तिक के रूप में.

रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "ज़िग्यांसु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित १६.२.२०१०)
ग्राम: बागी-नौसा, पट्टी.चन्द्रबदनी, टिहरी गढ़वाल

"विलुप्त होन्दि विरासत"

दिन बौड़ि ऐ जान्दान,
आज ऊख्ल्यारी का,
जब कूट्दा छान पीठु,
अरसा बणौण का खातिर,
गिन्जाळिन घम-घम्म,
बज्दि छन चूड़ी उंकी,
हाथु मा बल छम-छम्म.

जान्दरी क्या बोन्न त्वैकु,
तेरु रिन्गंणु आज अपशकुन छ,
रिन्गदी छै आज उल्टी,
वै दिन, जब क्वी,
यीं दुनिया छोड़िक चलि जान्दु,
गोति अंशी वैकु जौ पिसिक,
फिर वांकु पिंड बणादु.

डिंडाळि आज बुढया ह्वैगिन,
कुछ टूटणि छन,
जख कंडाळी जमीं अर,
रिटणि छन बिराळि,
कवि "ज़िग्यांसु" का मन मा,
पैदा होन्दी कसक,
कना दुर्दिन ऐगिन तुमारा,
हे पहाड़ की डिंडाळि.

रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "ज़िग्यांसु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित ५.२.२०१०, ९.३० रात्रि )
ग्राम: बागी-नौसा, पट्टी.चन्द्रबदनी, टिहरी गढ़वाल,
उत्तराखंड.

उत्तराखंड गीत

लिखता हूँ गुनगुनाता हूँ,
कल्पना में डूबकर,
इस कदर खो जाता हूँ,
फिर अहसास करता हूँ,
जैसे चंद्रकूट पर्वत पर बैठ,
चन्द्रबदनी मंदिर के निकट,
बजा रहा हूँ बांसुरी भी.

बुरांश है मुस्करा रहा,
हिमालय को दिखा रहा,
देख लो पर्वतराज हिमालय,
मेरा रंग रूप कैसा है.

निहार कर संवाद उनका,
मेरे कवि मन में भाव आया,
हँसते हुए हिमालय ने,
बुरांश को यूं बताया,
कालजयी है अस्तित्व मेरा,
तू तो आता है जाता है,
शिवजी को प्रिय हैं हम दोनों,
रंग रूप क्यों दिखता है.

दोनों का संवाद निहार कर,
फिर उत्तराखंड गीत गया,
"ज़िग्यांसु" ने आपको भी,
कल्पना करके बताया.

रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "ज़िग्यांसु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित १४.२.२०१०, ३.३० बजे)
ग्राम: बागी-नौसा, पट्टी.चन्द्रबदनी, टिहरी गढ़वाल,
उत्तराखंड.

"बरात अर पौंणा"

सजि धजिक पैटि एक बरात,
रंगमता पौणौ कठ्ठा करदु करदु,
घौर मु पड़िगी बल रात,
दाना पौंणा भौत पिथेन,
कन्दुड़ि धरिन बल हाथ.

बाराती मा जाण कु होंणु,
पीपा कू जुगाड़,
बड़ा पौंणा पेणा खुलम खुल्ला,
छोट्टा पौंणा खोजणा आड़.

ब्योलि का गौं का न्योड़ु जान्दु जान्दु,
जौंकि थै पिनि छटेगिन ज्यादा,
पौंणा कुल मिलैक रैगिन बाराती मा,
कुल मिलैक बल आधा.

खड़ा नि ह्वै सकणा अपणा गौणौ फर,
ढोल्या, दमैयाँ, बाजा वाळु अर पलंगेर,
ब्योलि का गौं मा होंणी बरात की इन्तजार,
रात भौत ह्वैगि, वन भी ह्वैगि बल देर.

यनि हालत मा कनुकै कैन'
बजौण थौ बल उत्तराखंडी ढोल,
गैस थमैक वर नारायण जी का हाथ मा,
पंडित जी भी ह्वैगिन कखि गोळ.

रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा, जिग्यांसू
और हरदेव सिंह जयाड़ा
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
21.2.2010 को रचित
दूरभाष: ९८६८७९५१८७

Thursday, February 11, 2010

देब्तान बोलि

एक दिन जब आफत आई,
कुल देब्तान किल्किक,
कौम्पि कौम्पिक बताई,
सुण भगत त्वे फर,
लग्युं छ मेरु दोष,
कै बार चिनाणु दिनि मैन,
पर त्वे सने नि आई होश.

पैलि त तू मेरु मंडलु,
घसि लिपिक घड्याळु लगौ,
कै सालु बिटि नि दिनि पूजा,
अपणा मन मा आस्था जगौ.

मैन बोलि देब्ता,
अब मैं खाण कमौण का खातिर,
घर बार छोड़िक छौं ये परदेश,
देवभूमि मा देब्ता जनु थौ,
अब यख बणिग्यौ खबेस.

संकल्प छ मेरु देब्ता,
जब मैं अपणा गौं उत्तराखंड जौलु,
देखलु अपणि जन्मभूमि,
दया दृष्टि रखि मै फर,
जरूर तेरु घड्याळु लगवौलु.


रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "ज़िग्यांसु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित ११.२.२०१०)
ग्राम: बागी-नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टिहरी गढ़वाल(उत्तराखण्ड)

देवभूमि मा पड़िगी ह्यूं"

याद ऐगि ऊँ दिनु की,
या खबर सुणिक,
जब सैडि रात होन्दि थै बरखा,
अर सुबेर उठिक देख्दा था,
ह्यूं पड़युं चौक, सारी, डांडी, कांठयौं मा,
खुश होन्दु थौ मन हेरि हेरिक,
देवभूमि उत्तराखण्ड मा.

आस जगणि छ मन मा,
खूब होलि फसल पात,
मसूर, ग्युं, लय्या फूललु,
ज्व छ बड़ी ख़ुशी की बात.

बस्गाळ अबरखण ह्वै,
महंगाई सी टूटणि छ कमर,
ह्युंद की बरखा वरदान छ,
नि रलि महंगाई फिर अमर.

पड़िगी ह्यूं बल उत्तराखंडी भै बन्धु,
औली, हेमकुंड, चोपता, तुंगनाथ, जोशीमठ,
धनौल्टी, त्रियुगीनारायण, ऊखीमठ,
खुश ह्वैगिन देवी देवता जख चार धाम,
डांडी, कांठयौं मा चमलाणु छ घाम,
सच बोलों त जन चमकदी छ चाँदी.

अपणा मुल्क की जब मिल्दि छ,
जब यनि भलि खबर सार,
आशा कर्दौं आप भी खुश होन्दा होला,
"देवभूमि मा पड़िगी बल ह्यूं"
जू ल्ह्यालि खुशहालि अपार.

रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "ज़िग्यांसु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित १०.२.२०१०)
ग्राम: बागी-नौसा, पट्टी.चन्द्रबदनी, टेहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड.

Wednesday, February 10, 2010

बतादे सब्योंते किले.....?

बूढ़ - बुढ़य
फवड़ना मुंड कपली
थम्दरौ का बुरा हाल
जवान - जमान घर का दीपक न
ख्हेव दे अपणि जान ।

पढ़े लिखे.....
नौकरी ................
अर छोरी ..................
सबय वेकी मर्जी न ।

बूढ़ - बुढ़य बिचरा
छेन्दा गोरु का
गुयेर वि नि बणि साका ।

वो निर्भगी सब्योंते
पढ़ादु छा पाठ
कांफिडेंस लेवल ...
पोसिटिव अप्प्रोच ......
हाउ टु आचीव द गोल .....
बीच-बीच माँ अंगरेजीकु
करदू छा खूब इस्तमाल ।

बूढ़ - बुढ़य
नि समझदा छा अर्थ
समझदा छा त बस इतगा
नौनु बदु आदिम ह्वेगे
गाडी मोटर की त
सबय करदी सैर
वो आस्मांन माँ उड़दै रेगे ।

आजा लाटा भुन्या
बतादे सब्योंते किले.....?
मोरी जांदी देश का खातिर
चौड़ी हवे जांदी छाती
बीर भूमि माँ जन्म लेकी
गंदी ह्वेगे त्वेसे माटी ।

अन्न पाणि छोड़ी
गंग्जे - गंग्जेकी
बूढ़ – बुढ़योंकी बंद ह्वेगे बाच
बाटु द्य्खदरा न ही वूते
इना दिन दिखैदें आज ।

copyright@विजय कुमार "मधुर"

Monday, February 8, 2010

"मेरा पहाड़"

आपका भी है प्राण से प्यारा,
जहाँ जन्म हुआ हमारा और तुम्हारा,
उस दिन हंसी थी फ्योंलि और बुरांश,
हमारे उत्तराखंड पदार्पण पर,
माता-पिता की ख़ुशी में,
शामिल हुए थे ग्राम देवता भी,
ग्रामवासी और पित्र देवता भी.

भूलना नहीं मित्रों पहाड़ को,
हमने अन्न वहां का खाया है,
जैसे कोदा, झंगोरा, कांजू, काफ्लु,
तोर की दाल और कंडाळी का साग,
लिया जन्म हमनें उत्तराखंड में,
देखो कैसे सुन्दर हमारे भाग.

ज्वान उत्तराखंड कहो या मेरा पहाड़,
कायम रहनी चाहिए आगे बढ़ने की ललक,
उत्सुकता बनी रहे हमेशा मन में,
देखने को उत्तराखंड की झलक.

शैल पुत्रों ये हैं कवि "ज़िग्यांसु" के,
मेरा पहाड़ के प्रति मन के उद्दगार,
पहाड़ प्रेम कायम रहे सर्वदा,
पायें पहाड़ से जीवनभर उपहार.

रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "ज़िग्यांसु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित, २.२.२०१०)
ग्राम: बागी-नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी, टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड.
दूरभास:९८६८७९५१८७

"बसंत"

वृक्षों ने त्याग दिए पुराने पात,
भांप लिया आने वाला है,
मनभावन ऋतुराज बसंत,
लेकर धरती पर अपनी बारात.

कोई नायिका पहनेगी पीली साड़ी,
पिया को पास बुलाने को,
जब आएगा बसंत, तब प्रियतम,
आतुर होगा उसके पास आने को.

बसंत के आने से पहले,
पहाड़ पर ह्युंद में ही आ गई,
फ्योंलि सज धजकर अपने मैत,
उन बेटी ब्वारियों से मिलने,
जो आई हैं ससुराल से मैत.

पय्याँ, आरू, बुरांश, गुर्याळ,
खिलेंगे जब पहाड़ पर,
धरती पर उतर आये बसंत,
और उसकी मनमोहक अदाएं,
रिझायेंगी कवि मित्रों और "ज़िग्यांसु" को,
एक रैबार आएगा पहाड़ का,
आओ..मौळ्यार के रंग में रंग जाओ,
पहाड़ आकर..अपने गाँव,
"बसंत" दूल्हा बनकर आया है.

रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "ज़िग्यांसु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित, ५.२.२०१०)
ग्राम: बागी-नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी, टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड.
दूरभास:९८६८७९५१८७

जाणु त्यारु

छोड़ी हम साणी
तू जब बिटिकी गे
सूना ह्वीनी भैर -भित्तर
चौक - डंडयाली रूवे !

रात रा उण्डी-उण्डी
दिन भी छो कुछ मुरुयु मुरुयु
छैल डाँडो कु भी आज
छो कुछ बूझ्यु बू झ्यु
मुंड घुन्ड़ोक पेट धारी
बिखुंन देलिम रा रूणी रै !

रौली छे उदास हुई
ज़ाद देखि त्व़े सणी
बाटा- घाटा छा बुना
दगडी लिजा हम सणी
भित्तर खाली सुनि डंडयाली
आज डंडयाली ह्वे ................... !

सुनू सुनू बोण छो
सुनोपन सारयूमा
स्वीणा रीटि रीटि छा कण सवाल
ब्व़े की रीती आंखयुमा
क्याजी देदी वो जबाब ...
जब जबाब हर्चिगे !

धुरपलिम बैठ्यु कागा
सोची सोची सुचुदु रै
चौका तिरोली लुल्ली घिनडूडी
सुस्गुरा ही भुरुदी रै
उरख्यलोंन तापना तूडिन
भित्तर सिल्वाटी रवे !

डाँडि काँठी गाद गदिनी
छोया रवैनी दिड़ा तोड़ी की
धुरपलिम थरप्यु द्य्ब्ता बुनू
कन बिजोग आज पोड़ीगी
धार पोर जान्द देखी त्वै
गोर -बछरा , गोंडी रामीगे !

पराशर गौर
फरबरी ७ २०१० ०७०
रात ११ बजे

Sunday, February 7, 2010

मरना एक मौत का !

एक तरुण ने
जैसे ही अपनी यौबन की दहलीज पर
अपने पाऊ रखे ही थे कि
मौत उसे निगल गई !

पंखे से झूलती उसकी लाश
मौन होकर ......
अपने ऊपर हुए अत्याचारों का
सबूत दे रही थी !
उसका वो मुरझाया चेहरा
उसकी वो लटकी गर्दन
कह रही थी .......
तुम सबने मिलकर मुझे मारा है ?

मुझे मारा है ...
मेरी माँ/बापा कि महत्वाकंशावोने
जो बार बार मुझ पर लादी जाती रही है
बिना मेरी , भावनाओं को समझे !

मुझे मारा है.....;
मेरे स्कूल के माहोल ने
जिसने मुझे बार बार प्रताड़ित किया है
कचोटा हैं , मुझे अन्दर ही अन्दर
हीन भावानौ के बीज बौ बौ कर !

मुझे मारा है ..
मेरे सीनियरो के घमंड ने
जो मुझे सरे आम हँसी का पात्र बनाकर
बार बा र मुझे लजित करते रहे
सब के सामने !

मै,
मरना नही चाता था
परन्तु मेरे पास ....,
इसके सिवा कोई बिकल्प भी नही था !

एक बिकल्प था
" बिद्रोह का ....//"
"बिद्रोह " .... किस किस से करता ?
सब के सब तो
अपने अपने चक्रब्यू में मुझे
फसाते जा रहे थे .....
जिससे बाहर निकलना
मेरे लिए ना मुमकिन सा था !

मुझे मारा है ....
मेरे अंदर के झुझते " मै ' ने
जो लड़ते लड़ते हार गया था
अपने आप से !

मै मर गया हूँ तो क्या ?

जीने कि लालसा और
उमीदो कि किरन अभी भी
सेष है .................!

जब तुम सकब लोग .,
मेरी भावनाओं को और
मेरी पीड़ा को समझ लोगे
तब.....
तब , कोई नही मरेगा
और नहीं मारेगा
वो ........
जियेगा एक सुनहरे भविषय के लिए !

पराशर गौर
५ फरबरी २०१० ३.४५ दिन में

Thursday, February 4, 2010

मोबाइल टावर

एक बार राजधानी के सबसे बड़े मोबाइल टावर में कौवो का सेमीनार हुआ। मुद्दा था वर्तमान हालातों का केसे सामना किया जाय ।

पहले काग देवता के नाम से हमें पूजा जाता था । रोज सुबह लोग अपनी छतों पर कुछ न कुछ खाने को रख ही देते थे । अब तो लोंगों के पेट खुद ही इतने बढ़ गए हैं कि उनका पेट ही नहीं भरता ।

जितना मिल जाय उतना ही कम । कूड़ेदान में भी फेंकते हैं तो सिर्फ पोलीथीन की पोटली । उसे भी खोलो तो पोलीथीन के अन्दर पोलीथीन । आखिरी में भी निकलता है रबर....पल्स्टिक...और भी पता नहीं क्या-क्या । अब तो उन्हें छूने का भी मन नही करता ।

व्रत - त्यौहार तो लोग जैसे भूल ही गए । अच्छा खाना खीर..... घी...... पकोड़ी........ पूड़ी......... सब्जी.....। मुह में पानी आ जाता है...।

अब तो कई दिन पानी भी नसीव नहीं होता। नहरों के ऊपर गाड़ियाँ दौड़ रही हैं । नानियाँ कबाड़ से पटी पडी हैं । सरकारी नलों का तो यह हाल है कि लम्बी-लम्बी लाइनें ....। इंसानो का ही नंबर नहीं आता .....।

पेड़ों के झुरमुट में दिल खोलकर कांव – कांव.. ...... भी नहीं कर सकते । रोज कट रहें हैं । मकान पर मकान बन रहें हैं ।

न अन्न न पानी न सत्कार..........

जरा किसी के घर के आगे कांव – कांव..... करो तो खाने दौड़ता है....

सेमीनार का पहला चरण तो योंही रोने धोने में बीत गया । दुसरे चरण में था कैसे इन बिषम परिस्थितियों का सामना किया जाय पर आधारित प्रयोग ।

पहले प्रयोग का बिषय था होशियारी जिसे एक ख़ास कौवे ने तैयार किया था । अपनी होशियारी से उसने देश बिदेश के कई सेमिनारों में भागीदारी निभाई। बिषय पर आधारित एक घडा सामने रखा गया, जिसके तले में कुछ पानी था । सभी से कहा गया पानी पीना है पर कैसे ........?

सबने कहा कौन नहीं जनता चतुर कोवे की कहानी । सभी एक साथ उड़ने को तैयार हो गए । देखो वह तो एक ही कौआ था इसलिए एक-एक कर पूरा करो । एक सयाना कौआ झटपट आगे आया... ये तो बड़ा आसान है....., मैं अभी पूरा करता हूँ इसे । ठीक है। वो फटाफट उड़ गया। लेकिन काफी देर बाद वापस आया अपनी चोंच पर एक छोटा सा पत्थर लेकर। क्यों भई इतनी देर बाद क्यों लौटे। एसे तो तुम दस दिन में भी नहीं भर पावोगे इसको। मैं क्या करता भला दूर-दूर तक कंही पत्थरों का नामो निशान ही नहीं नजर आता। जहाँ देखो ईंट ही ईंट।

तभी एक नौजवान कौआ जिसके सर के बाल खड़े दोनों पर ढीले अजीव सी चाल में आगे बढ़ा। सभी

उसको देख एक साथ हंस पड़े। यह क्या? कल का बच्चा ! ठीक से तो चलाना आता नहीं ! नौजवान ने इधर उधर नजर दौडाई और कुछ दूर से एक कागज़ की गोली सी उठा कर लाया। इससे पानी पिएगा.... हा....हा.......... । जरा दिखा तो दो.... क्या लिखा है इसमे। उसने सबको कागज़ दिखाया। जिस पर लिखा था पांच दिन में कंप्यूटर सीखें । हा... हा....हम और कंप्यूटर। आजा बेटा ! इधर आजा ! तेरे बस का कुछ नहीं ।

नौजवान ने गर्दन झटकी पानी का जायजा लिया और नीचे झुककर पानी के आस - पास चोंच मारनी शुरू कर दी । चंद मिनटों में ही पानी हाशिल । उसने खूब पानी पिया। और फिर कागज की गोली बनाकर उसे मटके में ठूंस शान से खडा हो गया। सबकी आँखें फटी की फटी रह गयी । अचानक नौजवान की नजर टावर में चढ़ते किसी पर पडी । भागो.....भागो..... । सबके सब समिनार अधूरा छोड़ उड़ गए। दरअसल जिस टावर पर सेमीनार चल रहा था उस पर मालिक के ज्यादतियों से तंग आकर अपने हक़ के लिए एक बिल्ली चढ़ गयी।

विजय कुमार "मधुर"

उत्तराखंड की वीरांगना श्रीमती मगनी देवी रावत"



साखनीधार, बद्रीनाथ मार्ग के निकट है,
श्रीमती मगनी देवी जी का गाँव,
बहादुरी की मिशाल उनकी,
विस्मय में डाल देती है,
जब उन्होंने जंगल में,
घास काटते हुए देखा,
तीन बच्चों पर वार करते हुए,
एक बर्बर रीछ को,
मजबूर कर दिया उसको,
धावा बोलकर पत्थर से,
भाग जाने को तुरंत,
जान बचाकर उल्टे पाँव.

रीछ से तीन बच्चों को बचाकर,
अपने को भी बचाया,
और अपने तीन बच्चों को भी,
माता विहीन होने से,
और प्राप्त किया,
इस महान कार्य के लिए,
भारत की राष्ट्रपति जी से,
"जीवन रक्षा पदक-२००८".

उत्तराखंडी समाज के लिए,
है न फक्र की बात,
मान बढाओ देवभूमि का,
श्रीमती मगनी देवी जी की तरह,
जिनको देखा कवि "ज़िग्यांसु" ने,
और ज़िग्यांसावश पूछा उनसे,
उनके साहसिक कार्य का,
आँखों देखा हाल उनकी जुबानी,
जिसे प्रस्ततु कर रहा हूँ,
कविता के रूप में,
क्योंकि मेरे मन में है,
उनके महान कार्य के लिए,
उनके प्रति सम्मान.

रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासू"
(सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि,लेखक की अनुमति लेना वांछनीय है)
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
निवास: संगम विहार, नई दिल्ली
5.1.2010, दूरभास:9868795187
E-Mail: j_jayara@yahoo.com

सवाल - जबाब

तुम,
मुझ से पूछते हो की
मेरी मुठी क्यों भिंची है?
मेरे आँखों में अंगारे क्यों है ?
मेरे स्वासो में उच्च वास कैसा ?

तो ...
उसका एक ही जबाब है .."तुम "
तुमने मेरे पेट पर लात मरकर
मेरे मुह का कौर छीन कर
मुझे ...
दर बदर भटकने पर नह्बुर किया है !

फिर भी पूछते हो की
मेरे आंखो में अंगारे क्यों ?
मेरी मुठीया क्यों भिची है ?

जबतक मुझे ...
मेरे सवालों का जबाब नहीं मिलता
तब तक ये ..
एसे ही रहेंगी तुम्हे घरती
सवाल करती !

पराशर गौर
१ फरबरी २०१० दिनमे १.३० पर

कुलै की मरमत (बातो बतंगड़)

जब कैथी कवी चीज़ पसंद नि आदी, त, वो बातो बतंगड़ बाणै की अपणी मनै भनास कन निकलद , इत आप सबी जंणदन ! क्वी ताना मारी मरी निकलद , त क्वी , सु णे- सुणे, ! क्वी सुनै सुनै की , त क्वी बना बणे बणे .. की ! अर जू इनु काम क्या करदा ... ! वे आदिम थै इन कनम संतोष भी आंद !
हमरा गौं माँ जुमली कु नायु नायु ब्यो ह्वै ! सासूल बोली , " ब्वारी ... भोल सेरा सैणु जाण ! कमीज सुलार ना ... धोती पैरी जाण बाबा ! आर हां वेसी पैली " पाणी की कुल ' भी ठीक कन .. // सुबेर ज्ररा सिंक्व्ली उठी जय हो ! " व बिचरी फजल लेकी उठ अर सीध गे कूल थै ठीक कनु ! कूल दिखया त जगा जगा बीती छै टूटी ! जनी वीं पाणीम घुटु तेरी त धोती गीली सी हुण बैठी ! वीन सोची की गीली हुण त अच्हू च की ई थै घुण्ड घुण्डओ तक उठाई की बंधी देऊ ! स्यु वीन उन काई अर धोती फील्यु से उबू कैकी घुन्ड़ो तक बेटी दे !
काम करद करद द्फारी ह्वेगी ! ये दौरान गौं का पधान जी घर छा आणा ! जनि उन नी ब्योली थै वीकी धोती जवा घुंडा घुंडा मथी तक छै जई ! वी थै देखी भारी गुस्स्म फिगारीद फिगारीद सीध गौका पनचैत जैकी धत लगे बुन बैठा ... " अरे गौवालो सुणा ... ब्यो केकु नि हवे .. साबू क्त ह्वै ! ये जुमली कु क्या बाकि बातो ब्यो ह्वै ! वेकि ब्वारील त़ा, श्रम लाज बेची धैरियाल ! सुसुर जिठणु जमा नि दिखणे ! आज तक हम्रर गौमा क्य, कुल ठीक नि ह्वै चै क्या?
तबी कैल पूछी ' अजी पधान्जी . क्य हवाय ? क्यों छा इत्गा गुसम ? वे जुमली की ब्योरिल क्य कैदे इनु , ! "
कैदे अरे ... ..मित बुनू छो.., गौ इनमे बिग्ड्दा ... अगर जू अभी नि सुधरे जा ! त बादम भारी बात ह्वै जाली ! गौं का लोगक कथा ह्वया ! सबी छा
पुचणा सची क्य कई होलू वे ब्वोरिल इन की तबरी जुमली ब्योई भी अगी .. ! पधान जई से बोलन लेगी .. " क्य छा बुला लाब काब .. ! क्युओ छा बे बातो ब बतनगड़ बनाणा ! .. हे गौ वालो मिनी अपणी ब्वारी कु बोली की तू आज सलवार कुर्ता ना धोत्ती परी जै .. किलैकी स्यरा सैद अर कूल ठीक करद वो पाणीम
भीगी जाला ! ये से अछु की तू धीति पैरी जै ! धोती ताहि हम घुंडा हुन्दो तक त उठाई की कामत कई सकदा ना.. !
" सब्युन एक स्वरमा बोली .. हां ..हां ...., किले ना.. किले ना ...! आजतक तक हम भी त इनी करी की अवा ! वी ब्वारिल इनु क्य नौ काम कैदे जू यु पधान जई थै बुरु लगी गे ! " देखा पधान जई आप बे बात पर छा नाराज हुणा .. नाराज हुणों यु क्वी तरिका नि ? आप ताहि अछु नि लगी त इतका हला कैनी की क्य जरूरत चै ! जुमली का ग़म जांदा अर बुल्ड की बिता इनु काम ठीक नी नई नई ब्योरी कु त वू बी समझी जादू अर बात भी रैजादी !

पराशर गौर
दिनाक २ फरबरी रात ९ ५३ २०१०

Tuesday, February 2, 2010

सरकरी लोन - लघु कथा

हे! बौऊ त्वेतेन हफोर पोस्टमैंन काका बुलाणु पदनू का घौर माँ |

किरणन चौक का किनर बटी बोली अर चलिगे | रुकमा जो जूठा भांडा लेकी छवण माँ जाण छा घंघ्त्तोल माँ पोदिगे| हे ! ब्वे पर्सीत वूनकू मंयोडर येई| चिठ्ठी होंदी त वू ज्योरून किरण का हाथ दे देनी छ. क....खी...कवी....तार....न....ना....मी....भी....निर्बई........ भांडा वखिम छोदिक दौड़ी-दौड़ी पोंचिगे पदनू का घौरमा|

मंगुतुकी ब्वारी ! बाबा मंगुतु का नोऊ एक रजिस्ट्री अन्यी | गों का पता पर अन्यी इन करा तुम्ही लेल्ल्यावा | पण ज्योरो इन बतावा या कख बटी अन्यीच|

ल्यावा अंग्वठा लगावा | रुकमा न अंग्वठा लगें अर रजिस्ट्री देदे पोस्टमैंन का हथमा| ज्योरो इन बतावा या अन्यी कख बटी छ | म्यारत डर का मार.....................................


पोस्टमैंन न सरि चिठ्ठी पैढी अर सार सुणई
बबा ! ये ब्लाक बटी अन्यीं छ | तुमरा ससुरा न वख बटी लौंन ले होलू हौज बणनुतै | लिख्युंच एक मैना भितर लोन लौटई दिया निथर वसूली का खातिर तहशील मा केस भ्यजे जालु.............. |

कर्ज ..........हमरा त स्यारा वि नि छन………..फेर...हौज… | हाँ..हाँ ज्योरो तुम त जणदै छौं म्यार ससुर जीतेन म्वरर्याँ त आठ साल ह्वेगैन | तब या रजिस्ट्री कख बटी | ब्वारी मी कुछ नि जंणदूं……… जन्दी ये कागज लायावा | मीतेन अबेर होनी छ……...हौरी जगु भी जाण अभी . ………पर ज्योरो......................... पोस्टमैंन झ्वाला उठाकी चलिगे| रुकमा मुंड पर हथ लगाकि खौलीसि रेगे | स्व्चण लेगे अब क्य हौलू..... |

copyright@विजय कुमार "मधुर"

Monday, February 1, 2010

एक , एस एम् एस

" मिन कख बोली अर क्या बोली ?"

हमरा गौमा " क्य बुलद अर क्य करद " वाली एक ददी छै ! वा सरया गौमा ये, ई नाम से जणै भी जांदी छै ! या उपाधी वी थै सुधी -सुधी नि मिली ! बर्षो क तजुर्बा अर अभ्यास से वीं हासिल कोरी !मयारू बुलाणो मतलब युच की , कुछ कैकी मील ! ! अब देखा ना हमरा पहाडमा , वखकी ब्वारियु थै उपाधी उ थै इनी मील जन्दीन मुफ्तमा , बिना कुछ करया ! उदाहरण का वास्ता केकु आदिम अगर मास्टर चा .., त , गौका सबी छोटा बड़ा वीथै मास्टरयाणी कैई की बुलोंदन ! लगिना फीती , ... बिना कुछ करया ! मजेकी बात बाठी या पैणा बटण दां भी, इनी बुलैजांद की मास्टरयाणी करो कु ! अब देखा ऩा सुबेदारै बीबी खुनै सुबोद्नी , डाक्टरी बीबी खुणई -डाक्टरीणी, सीपै की बीबी खुणई - सीपैणी त इनी वी द्दी पर भी भीती लगि गे छे वीकी क्या बुन आर क्यं कन पर ! कुछ अपबाद भी छन ये बिषय पर , जनकी नेता की बीबी खुणी कवी..., नेत्याणी नि बुलद ! गल्दारै बीबी खुणी, कवी भी गल्दारणी नि बुलद !


वी ददी की खाशियत छाई` की, पैली त, केका भी बारमा लम्बी लम्बी छोड़ी ! इनै उनै की लगे की ! सरया गौमा बबाल मचाई की बदनाम कैकी फिर बुल्दी छाई की मिन कबरी बोली, अर क्या बोली अर कैमा बोली ! एक मिनटम मुकरी जादी छई वा हमरा देसाका नेतौओ की जनी !

एक दा त, वीन गौका एक भला आदिम का वास्ता इनी बात, अर इनी छुई...., उभी, ठुसकी -फुसकी लगिकी बदनाम कैदी ! उ त फांस खाद खांद बचेदे लुखुल ! बादम पता लगी, की, ये सब काम वी दादी का छन ! जब भरी पंचैतं म , वीसे पुचैगी की तिल इनु किले कारी , अर इन किले बोली ? वा साफ़ मुकरी ग़े मिन बोली नि जू तुम छा बुना ! उदाहरण दे देकी बुन बैठी मिनट इनु बोली जैकू अर्थ समनी वालों ण गलत लगाई... ! मयारू फ्जितु से कवी जातीय दुश्मुनी अर ण वैल मयारू पुंगडो उज्याड खलाई त फिर इन किले बुलुलू ! वीक कु यु तर्क पंचैतं जत्गा छा सबी एक हैंक कु मुख दिखण लगिनी ! अब ब्वाल त क्या ब्वाला .. ?? अर , ददी उख बीटी चौड़ी छाती कैकी इन गे, जन बुलिंद वा कारगिल पर तिरंगा फैरैकी की जाणी होली ! या हाई स्कुल्म फर्स्ट आइ होली ! इनी कारनाम त वीन एक ना कई दफा कैनी ! हर दफा झूट बोली साफ़ निकललें की कला देखी ! गौ वालो न कतका दफा बोली को तू इलेक्शन में खड़ी ह्वेजा ! त्वेम नता बाणा सबी गुण छन ! पता वीकू जबाब क्या छो ?? फुन्डू फुका ... उ , नेताओं थै ! जू पांच साल तक भी नि रैन्दा ! अर जू रैनद भी छन, उ थै , आदिम त आदिम कुकर तक भी नि पुछुदू ! मी जब तक रो, अर जब तक चों , ई पध्बी पर बरकारा रोलु !

पता वीकू जबाब क्या छो ?? फुन्डू फुका ... उ , नेताओं थै ! जू पांच साल तक भी नि रैन्दा ! अर जू रैनद भी छन, उ थै , आदिम त आदिम कुकर तक भी नि पुछुदू ! मी जब तक रो, अर जब तक चों , ई पध्बी पर बरकारा रोलु !


ददील ईक हैंक्य पैंतरा फेंकी ... ब्याली एक , एस एम् एस कैल भेजी .. की पहलाणु इनु छो बुनू अर आज फिर एक एस एम् एस आई की ना जी ना... आपल गलत समझ दे मिट ये ना या चों बुनू ! अब बोला मी कख चों गलत न ..न..न.. अर मं क्या बोली ताबा ?

पराशर गौड़
२८ जनबरी २०१० रात ८ ..४६ पर