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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Monday, August 10, 2009

यूँ ही अचानक


यूँ ही अचानक कहाँ कुछ भी हो जाता है
बस अन्दर ही अन्दर कुछ हो रहा होता है
किसको फुरसत की देखे फ़ुरसत से जरा
भला कहाँ उथला कहाँ राज है गहरा
बेवजह गिरगिट भी तो कहाँ रंग बदलता है
यूँ ही अचानक कहाँ कुछ भी हो जाता है

यूँ कहने को सारा जग अपना ही तो है
पर वक्त पर कौन कितना साथ दे पाता है
अपने-पराये की उलझन से कितने बाहर निकले
जीने-मरने वाला ही कितना साथ निभाता है
जो सगा है वही कितना सगा रह पता है
यूँ ही अचानक कहाँ कुछ भी हो जाता है

यूँ ही कहाँ कोई किसी की सुध लेता है
बिन मांगे कोई कितना किसी को दे देता है
जब तक विप्र सुदामा मागने नहीं गए थे
सर्वज्ञाता कृष्ण भी जाकर कितना दे आये थे
भोग महलों का सुख, झोपड़ी कौन याद रखता है
यूँ ही अचानक कहाँ कुछ भी हो जाता है

कल तक खूब बनी पर अब है खूब ठानी
बात बढती है तो तकरार तो जरुर होती है
तू-तू-मैं-मैं की अगर जंग छिड गयी तो
फिर जंग कहाँ अपना-पराया देख पाती है
बेवजह समुन्दर में कहाँ ज्वार-भाटा आता है
यूँ ही अचानक कहाँ कुछ भी हो जाता है

जब दो का साथ मिला तो खूब बना लिया
लक्ष्य पर अडिग रहे तो मुकाम भी पा लिया
यह देख जो कल तक दूर थे, वे पास आने लगे
जो कांटे बिछाते थे कभी, वे फूल बरसाने लगे
भला बिन बादल आसमां भी कहाँ बरस पाता है
यूँ ही अचानक कहाँ कुछ भी हो जाता है

Copyright @Kavita Rawat, Bhopal, 8/8/09

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