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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Friday, July 10, 2009

तप रहा है सावन

कैसा अनर्थ हो गया है, तप रहा है सावन,
कहाँ खो गए मेघदूत, लगता नहीं मन भावन.

प्यासी है धरती, प्यासे लोग, देख रहे आसमान,
कैसा सूखा सूखा सावन, क्योँ रुष्ट हुए भगवान.

कहते हैं सावन में नहीं दिखता, आसमान में घाम,
तपती धूप कर रही विचलित, क्या होगा प्रभु श्रीराम.

कसूर इंसानों का भी है, काट दिए हैं जंगल,
सूखा सूखा सावन आया, देखो घोर अमंगल.

जो हिमालय देता था, पवित्र नदियों में नीर,
रो रहा है आँखों में आंसू, हो रहा है अधीर.

अब भी जागो इंसानों तुम, करो धरती का सृंगार,
वृक्ष लगाकर फैलाओ हरियाली, करो ऐसा उपकार.

(सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसू"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
8.7.2009

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